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________________ / 1445-50 के बीच होना चाहिये। सं० 1475 में की विस्तृत प्रस्तावना में आपके शिष्य समूह के सम्बन्ध में श्री जिनभद्रसूरिजी ने आपको उपाध्याय पद से विभूषित भी लिखा है। तदनुसार आपके प्रथम शिष्य मेघराज किया था। श्रोजिनवद्ध' नसूरिजी के पास आपने लक्षण- गणि थे जिनके रचित नगरकोट के आदिनाथ स्तोत्र, साहित्यादि का अध्ययन किया था। सं. 1478 से सं० चौबीस पद्यों का हारबन्ध काव्य है। दूसरे शिष्य 15.3 तक की आपकी अनेक रचनायें प्राप्त हैं। सं० सोमकुञ्जर के विविध अलंकारिक पद्य विज्ञप्ति त्रिवेणी मे 1511 की प्रशस्ति के अनुसार आपने हजारों स्तुति- प्राप्त हैं। एवं खरतरगच्छ-पट्टावली हमारे एतिहासिक स्तोत्रादि बनाये थे। खेद है कि आपकी रचनाओं की तीन जैन काव्य संग्रह में पद्य 30 की प्रकाशित है। जेसलमेर के संग्रह-प्रतियाँ हमारे अवलोकन में आई वे तीनों ही अधरी श्री संभवनाथ जिनालय की प्रशस्ति सं० 1467 में आपने थीं, फिर भी आपकी पचासों रचनाएं संप्राप्त हैं। स्वर्गीय निर्माण की जो जैसलमेर जैन लेख संग्रह में मद्रित है। मनि की कान्तिसागरजी के संग्रह में आपकी कृतियों का जयसागरोपाध्याय के विशिष्ट शिष्यों में उ० रलचन्द्र एक गुटका जानने में आया है जिसे हम अब तक नहीं देख भी उल्लेखनीय है जिनकी दीक्षा सं० 1484 के लगभग सके हैं / सं० 1515 के आसपास अपका स्वर्गवास अनुमा- हई होगी। सं० 1503 में जयसागरोपाध्याय के पृथ्वोनित है। चन्द्र चरित्र को प्रशस्ति में गणि रत्नचन्द्र द्वारा रचना में __ खरतर गच्छ में महोपाध्याय पद के लिए यह परम्परा सहायता का उल्लेख है। सं० 1521 से पूर्व इन्हें उपाहै कि अपने समय में जो सब उपाध्यायों से वयोवृद्ध-गीतार्थ ध्याय पद प्राप्त हो चुका था। इनके शिष्य भक्तिलाभोहो वह अपने समय का एक ही महोपाध्याय माना जाता पाध्याय भी अच्छे विद्वान थे उनकी कई रचनायें उपलब्ध है। आचार्य-उपाध्याय तो अनेक हो सकते पर महोपाध्याय हैं। उनके शिष्य पाठक चारित्रसार के शिष्य चाहचन्द्र एक ही होता है, अत: महोपाध्याय जयसागर दीर्घायु, और भानमेश वाचक थे जिनके शिष्य ज्ञानविमल उपाध्याय पत्रहत्तर-अस्सी वर्ष के हुए होंगे। असाधारण प्रतिभा / और उनके शिष्य श्रीवल्लभोपाध्याय अपने समय के नामी सम्पन्न विद्वान होने के नाते आपने सैकड़ों रचना अवश्य की विद्वान थे। आपके रचित विजयदेव माहाम्य की मुनि होगी। प्रात: रचनाओं का सुसम्पादित आलोच त्मिक जिन विजयजी ने बड़ो प्रशंसा की है। आपके अरजिनम्तव संग्रह प्रकाशन होने से आपकी विद्वत्ता का सच्चा मुल्यांकन हो सकेगा। सटीक और संघपति रूपजी वंश प्रशस्ति महो० विनयसागर महो० जयसागरजी की शिष्य-परम्परा भी बड़ी जी संपादित एवं विद्वद्प्रबोध तथा हेमचन्द्र के व्याकरण मरत्वपूर्ण रही है। मनि जिनविजयजी ने विज्ञप्ति त्रिवेणी कोश आदिमी टीका प्रकाशित हो चकी है। - -- ---- -- - - - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211703
Book TitleMahopadhyaya Jaysagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherZ_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf
Publication Year1971
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size539 KB
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