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उपाध्याय जयसागरजी की विज्ञति त्रिवेणी द्वारा अनेक नये तथ्य और जैन इतिहास तथा अप्रसिद्ध तीर्थ सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। मुनि जिनविजयजी ने लिखा है कि विज्ञप्ति त्रिवेणी रूप पत्र ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्व का है । इसमें लिखा गया वृत्तांत मनोरंजक होकर जैन समाज की तत्कालीन परिस्थिति पर अच्छा प्रकाश डालता है । उस समय भारत के उन ( सिन्धु पंजाब ) प्रदेशों में भी जैन धर्म का कैसा अच्छा प्रचार व सत्कार था । इन प्रदेशों में हजारों जंन बसते थे व सैकड़ों जिना - लय मौजूद थे जिनमें का आज एक भी विद्यमान नहीं । जिन मरुकोट, गोपस्थल, नन्दनवनपुर और कोटिल्लग्राम आदि तीर्थस्थलों का इसमें उल्लेख है उनका आज कोई नाम तक भी नहीं जानता । जहाँ पर पांच पांच दस दस साधु चातुर्मास रहा करते थे वहां पर आज दो घण्टे ठहरने के लिये भी यथेष्ट स्थान नहीं। जिस नगरकोट महातीर्थ की यात्रा करने के लिए इतनी दूर दूर से संघ जाया करते थे वह नगरकोट कहां पर आया है इसका भी किसी को पता नही ।
इसमें केवल अलंकारिक वर्णन ही नहीं है परन्तु एक विशेष प्रसंग का सच्चा और सम्पूर्ण इतिहास भी है । ऐसा पत्र अभी तक पूर्व में कोई नहीं प्रगट हुआ । यह एक बिल्कुल नई ही चीज है । "
नगरकोट कांगड़ा में बहुत प्राचीन प्रतिमा थी । खरतरगच्छ के आचार्य जिनेश्वरसूरिजी के प्रतिष्ठित और साधु खीमसिंह कारित शांतिनाथ मंदिर व मूर्ति का उपाध्यायजी ने वहां दर्शन किया। वहां के राजा भी परंपरा से जैन थे । नरेन्द्र रूपचंद के बनाये हुए मंदिर में स्वर्णमय महावीर बिम्बको भी उन्होंने नमन किया। यहां की खरतरवसही का उल्लेख करते हुए लिखा है - "अपि च नगरकोट्टे देशजालन्धरस्थे
प्रथम जिनपराज: स्वर्ण मूर्त्तिस्तु वीरः
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खरतरवसतौ तू श्रेयसां धाम शान्ति
स्त्रयतिदम भिनम्याह्लादभावं भजामि ॥ १८ ॥ " पंजाब और सिन्ध प्रदेश में शताब्दियों तक खरतरगच्छ का बहुत अच्छा प्रभाव रहा है। इस सम्बन्ध में मेरा लेख "सिन्ध प्रान्त और खरतरगच्छ " द्रष्टव्य है ।
हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में जयसागरोपाध्याय सम्बन्धी जो महत्त्वपूर्ण विवरण सं० १५११ का लिखा हुआ छपा है उसका सार इस प्रकार है
"उज्जयन्त शिखर पर नरपाल संघपति ने "लक्ष्मीतिलक" नामक विहार बनाना प्रारंभ किया तब अम्बादेवी, श्री देवी आपके प्रत्यक्ष हुई और सैरिसा पार्श्वनाथ जिनालय में श्री शेष, पद्मावती सह प्रत्यक्ष हुआ था। मेदपाटदेशवर्त्ती नागद्रह के नवखण्डा पार्श्व चैत्यालय में श्रीसरस्वती देवी आप पर प्रसन्न हुई थी। श्री जिनकुशलसूरिजी आदि देवता भी आप पर प्रसन्न थे । आपने पूर्व में राजगृह नगर उड़-विहारादि, उत्तर में नगरकोट्टादि, पश्चिम में नागद्रह आदि को राजसभाओं में वादि वृन्दों को परास्त कर विजय प्राप्त की थी । आपने सन्देह, दोलावली वृत्ति, पृथ्वीचन्द्र चरित, पर्व रत्नावली, ऋषभस्तव, भावारिवारण वृत्ति एवं संस्कृत प्राकृत के हजारों स्तवनादि बनाये | अनेकों श्रावकों को संघपति बनाये और अनेक शिष्यों को पढ़ाकर विद्वान बनाये । "
इसमें उल्लिखित गिरनार के नरपाल कृत "लक्ष्मीतिलक प्रासाद" के संबन्ध में रत्नसिंहसूरि रचित गिरनार तीर्थमाला में भी उल्लेख मिलता है'थापी श्री तिलक प्रासादहिं, साहनरपालि
पुण्य प्रसादिहिं सोवनमय सिरिवीरो" महो० जयसागर जिनराजसूरिजी के शिष्य थे अतः उनकी दीक्षा सं० १४६० के आस-पास होनी चाहिये । इनकी दीक्षा बाल्यकाल में हुई, ऐसा प्रशस्ति में उल्लेख है, अतः दस-बारह वर्ष की आयु में दीक्षित होने से जन्म सं०
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