Book Title: Mahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Author(s): Udaybhanu Sinh
Publisher: Lakhnou Vishva Vidyalaya

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Page 11
________________ गवेषणा है । 'सरस्वती-सम्पादन' नामक सातवें अध्याय मे द्विवेदी-सम्पादित 'सरस्वती' के आन्तरिक सौन्दर्य और उसकी उत्तमर्ण तथा ऋणी मराठी,बंगला, अंग्रेजी एवं हिन्दी-पत्रिकाओं की तुलनात्मक समीक्षा के आधार पर द्विवेदी जी की सम्पादनकला का मौलिक विवेचन है । 'भाषा और भाषासुधार' -अध्याय अपेक्षाकृत अधिक खोज का परिणाम है। अभी तक हिन्दी के आलोचक सामान्यरूप से कह दिया करते थे कि हिन्दी-गद्यभाषा के संस्कार और परिष्कार का प्रधान श्रेय द्विवेदी जी को ही है। 'द्विवेदी-मीमासा' में एक संशोधित लेख भी उद्धत किया गया था। परन्तु, स्वयं द्विवेदी जी की भाषा प्रारम्भ में कितनी दूपित थी, उन्होंने अपनी भाषा का भी परिमार्जन किया, दूसरो की भाषा की ईदृक्ता क्या थी, उनकी भ्रष्ट भाषा का सुधार द्विवेदी जी ने किन किन विभिन्न उपायों और कितनी कष्टसाधना से क्रिया, उनके द्वारा परिमार्जित भापा का विकास किन विभिन्न रीतियो और शैलियों मे फलित हुश्रा, आदि बातों पर व्याकरणरचनासंगत वैज्ञानिक गवेषणा और सूक्ष्म विवेचन की आवश्यकता थी । पाठवें अध्याय में इसी कमी की पूर्ति का मौलिक प्रयास है। ___ नवाँ तथा अन्तिम अध्याय 'युग और व्यक्तित्व' का है। हिन्दी के इतिहासकारों ने हिन्दी-साहित्य के एक युग को द्विवेदीयुग स्वीकार कर लिया था। किन्तु उसके निश्चित सीमानिर्धारण पर कोई प्रामाणिक समालोचना नहीं लिखी गई । डा० श्रीकृष्ण लाल का ग्रन्थ 'अाधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास' प्रायः द्विवेदीयुगीन साहित्य की ही समीक्षा है । उसकी दृष्टि भिन्न है । प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्तिम अध्याय की अपनी मौलिक विशेषता है। इसमें द्विवेदीयुग का कालनिर्धारण करके ही सन्तोष नही कर लिया गया है, उसकी प्रामाणिक समीक्षा भी की गई है। द्विवेदी जो अपने युग के साहित्य के केन्द्र रहे हैं और उस युग के प्रायः सभी महान साहित्यकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनसे अनिवार्य रूप से प्रभावित हुए हैं । उस युग के हिन्दी-साहित्य के सभी अंगों के भाव या अभावपक्ष पर द्विवेदी जी की छाप है । द्विवेदीयुगीन साहित्य के समालोचन की यह दृष्टि ही इस निबन्ध की प्रमुख विशिष्टता है । यहाँ पर एक बात स्पष्टीकार्य है । मनुष्य ईश्वर की भाँति सर्वत्रव्यापक नहीं हो सकता। अतएव द्विवेदी जी का व्यक्तित्व भी हिन्दी-साहित्यसंसार के प्रत्येक परमाणु में व्याप्त नहीं हो सका है । 'युग और व्यक्तित्व' अध्याय पढ़ते समय कहीं कहीं ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जब हिन्दी-संसार में इस प्रकार की कलासृष्टि हो रही थी तब द्विवेदी जी क्या कर रहे थे ? उत्तर स्पष्ट है । द्विवेदी जी का प्रभाव सर्वत्र सामान नहीं है। कविता, आलोचना, भाषा श्रादि के क्षेत्र मे उन्होंने कायाकल्प किया है, उपन्यास-कहानी की कुछ व्यापक प्रवृत्तियों पर ही उनका प्रभाव पड़ा है और नाटक के अभाव पच में ही उनके व्यक्तित्व की मुख्ता है, उसके भावपद में नहीं जिस अंग में और जहाँ

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