Book Title: Mahavir ka Sarvodaya Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 4
________________ व्यसन त्याग व्यक्ति तथा समष्टि के हित की दृष्टि से अहिंसा के साधक को अपनी प्रवृत्तियों को सदाचार से समलंकृत करना आवश्यक है। इन सप्त व्यसनों का परित्याग अत्यन्त आवश्यक है, कारण इन व्यसनों से आत्मा का पतन होता है तथा विश्व को भी हानि पहुँचती है । जुआ, आमिष, मदिरा, दारी, आखेटक, चोरी, परनारी । ये ही सात व्यसन दुःखदाई, दुरितमूल दृरगति के भाई । । अहिंसा की साधना द्वारा ही सच्ची सर्वोदय की स्थिति उपलब्ध होती है । सत्य, अचौर्य, शील, अपरिग्रह, निरभिमानता, संयम आदि सत्यप्रवृत्तियां अहिंसा के अंतर्गत हैं। तत्वार्थ सूत्र में कहा है, प्रमतयोगात्प्राण व्यपरोपणं हिंसा" - प्रमत्त योग अर्थात् क्रोधादि विकारों से मुक्त हो प्राणों का घात करना हिंसा है। ऐसी हिसा का त्याग निर्मल मनोवृत्ति पर निर्भर है। उस निर्मन मनःस्थिति के हेतु बाह्य प्रवृत्तियां उज्जवल रहनी चाहिये । मांस सेवन करने से मनोवृत्ति मलिन होती है। शराब का सेवन भी आत्मा में विकारी भावों को उत्पन्न करता है । एक शराब प्रेमी कहता है कि मद्यपान से आत्मा को कोई हानि नहीं पहुंचती । मजहब में पक्का विश्वास रखने पर बाहरी स्वच्छन्द आचरण कुछ भी क्षति नहीं पहुंचा सकता। खाने-पीने से आत्मविकास तथा धर्म का सम्बन्ध है । वह विलासी जीवन का प्रतिनिधि बन पूछता है जाहिद शराब पीने से काफिर बना मैं क्यों ? क्या डेढ़ चुल्लु पानी में ईमान बह गया । सत्पुरुषों का अनुभव यही धारणा हमारे विश्वहित की चिन्ता में निमग्न रहनेवाले प्रमुख लोगों को मांस, मदिरा आदि को सेवन करने में उत्साहित करती है किन्तु सात्विक Jain Education International * आचार, विचारवाले महापुरुषों का अनुभव है कि आहार की शुद्धता का विचारों पर प्रभाव प्रत्यक्ष गोचर है । अपने राजयोग में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं, " हमें उसी प्रकार का आहार ग्रहण करना चाहिए, जो हमें सबसे अधिक पवित्र मन दे। हाथी आदि बड़े जानवर शान्त और नम्र मिलेंगे। सिंह और चीते की ओर जाओगे, तो वे उतने ही अशान्त मिलेंगे। यह अन्तर आहार भिन्नता के कारण है।" हिरण शाकाहारी है, बिल्ली मांसाहारी है; दोनों के जीवन का निरीक्षण बताता है कि हिरण जहाँ शान्त रहता है, वहाँ मार्जार क्रूरतापूर्ण आचरण के कारण अशांत अवस्था में पाया जाता है। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है "मन का शरीर के साथ निकट संबंध है। विकार मुक्त मन विकार पैदा करने वाले भोजन की ही खोज में रहता है । विकृत मन नाना प्रकार के स्वादों और भोगों को ढूंढता फिरता है और फिर उस आहार और भोगों का प्रभाव मन के ऊपर पड़ता है। मेरे अनुभव ने तो मुझे यही शिक्षा दी है, कि जब मन संयम की ओर झुकता है, तब भोजन की मर्यादा तथा उपवास खूब सहायक होते हैं । इनकी सहायता के बिना मन को निर्विकार बनाना असंभव सा ही मालूम होता है ।" (आत्मकथा ख. 5 पृ. 112-131) वैज्ञानिकों ने इस बात को स्वीकार किया है कि मांस, मदिरा आदि के द्वारा शक्ति तथा आरोग्य का प्राप्त करना ऐसा ही है जैसे चाबुक के जोर से सुस्त घोड़े को तेज करना । यूरोप के मनीषी महात्मा टाल्सटाय ने कहा है, 'मांस खाने से मनुष्य की पाशाविक प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं, काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने और शराब पीने की इच्छा होती है । इन सब बातों के प्रमाण सच्चे और शुद्ध सदाचारी नवयुवक, विशेषकर स्त्रियाँ और तरुण लड़कियां हैं जो इस बात को साफ साफ कहती हैं, कि मांस खाने के बाद काम की उत्तेजना और अन्य पाशविक वृत्तियां अपने आप प्रबल हो जाती है।" उनके ये शब्द विवेकी तथा सच्चे सुधार के प्रेमी को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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