Book Title: Mahavir ka Sarvodaya Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का सर्वोदय शासन असंयम और स्वच्छन्दता से सम्बन्धित आज के विज्ञान ने समस्त विश्व की बड़ी भयावह स्थिति उत्पन्न कर दी है। हिंसा का विषाक्त वातावरण और आध्यात्मिक अँधियारी उम्र रूप से बढ़ रही है । बड़े-बड़े राष्ट्रनायक शान्ति, एकता, अहिंसा और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व ( Peaceful co-existence) की सुमधुर चर्चा करते हैं, किन्तु वे प्रयास इसलिए विफल होते हैं कि उनके अन्तःकरण में सच्ची अहिंसा की भावना नहीं है । वे लोग तो शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ (Macbeth) के इन शब्दों के प्रतीक प्रतीत होते हैं । लेडी मैकबेथ अपने पति को मायाचार की इस प्रकार शिक्षा देती है, Look like an innocent flower But be the serpent under it तुम पुष्प के समान अपना निर्दोष रूप दर्शाना, किन्तु अपने हृदय में विषधर की घातक वृत्ति को छिपाए रखना ( ताकि शत्रुर्डकन का विनाश कार्य संपन्न हो सके ) । आज राष्ट्र के कर्णधार हंस की मनोज्ञ मुद्रा धारण कर बकराज का आचरण करते हैं । ६१ सुमेर चन्द्र दिवाकर शास्त्री भयावह स्थिति : प्रायः प्रत्येक राष्ट्र स्वार्थ की पराकाष्ठा पर प्रतिष्ठित दिखाई दे रहा है । लोकनायकों की हार्दिक स्थिति का अकबर ने ठीक चित्रण किया है : कौम के गम में पार्टियां खाते हैं हुक्काम के साथ । रंज लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ । विश्व शांति और अहिंसा की वाणी द्वारा चर्चा करते समय हमारे माननीय राजनीतिज्ञ करुणामय आचरण की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते । डाइनिंग टेबिल पर विश्व कल्याण की मंत्रणा करते समय ये निरपराध पशुओं का मांस बड़ी रुचि से अपने उदर में प्रवेश कराते हुए तथा शराब को सुधा तुल्य मान पीते हुए अहिंसा के प्रकाश को खोजा करते हैं। ऐसी आसुरीवृत्ति पूर्ण स्थिति में अहिंसा से भेंट होगी या क्रूरतापूर्ण राक्षसी वृत्ति दिख पड़ेगी ? विश्वकवि रवि बाबू ने कहा था " महाशांति का संबंध 'महाप्रेम' के साथ है" । खेद है कि आज लोग जीवन की पवित्रता (Sanctity of life) के स्थान में छुरी की पवित्रता (Sanctity of knife ) को अपने अन्तःकरण में मान Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैठे हैं भौतिक विज्ञान ने जो आराम की सामग्री के समस्त दु:खों का मूल कारण हिंसा है। ज्ञानार्णव में साथ में सर्वनाश करने वाले अणुबम आदि अस्त्र प्रदान आचार्य शुभचंद्र ने कहा है : किये हैं, उससे सारा विश्व गहरी चिन्ता में डूब गया यत्किचित् संसारे गरीरिणिां दःख शोक भय बीजम् । है । सर्वत्र भय और स्नेह शून्यता की प्रचण्ड पवन बह दौर्भाग्यादि समस्तं तद्धिसा-संभवं ज्ञेयम् । रही है। डॉ. इकबाल ने वर्तमान हिंसात्मक विकास की व्यंग्यात्मक शैली में इन शब्दों में समीक्षा की है : इस संसार में जीवों के दुःख शोक एवं भय के बीज स्वरूप दुर्भाग्य आदि का दर्शन होता है, वह जान ही लेने की हिकमत में तरक्की देखी। हिंसा से ही उत्पन्न समझना चाहिये। मौत का रोकनेवाला कोई पैदा न हुआ। शुद्ध तथा स्वार्थी व्यक्ति "जीवो जीवस्यभक्षणम्" दार्शनिक बड रसिल ने लिखा है जिस अणुबम जीव का आहार दूसरा जीव है अथवा समर्थ को ही जीने का अधिकार है (Survival of the fittest) के फेंके जाने पर जापान का हिरोशिमा नगर नष्ट हो। गया, आज उससे पच्चीस हजार गुने बम का निर्माण सोचा करता है। यथार्थ में उक्त बात पशू जगत से संबंध रखती है। मनुष्य पशु जगत से श्रेष्ठ है। वह हो चुका है। उन्होंने अपनी पुस्तक Impact of Science on Sociology' में लिखा है : Some eminent विवेक और विचार शक्ति समलंकृत है। उसे अपनी authorities including Eienstein hav epointed दृष्टि को उदार बनाना चाहिए । संत वाणी हैout that there is a danger of the extinc जैसे अपने प्रान हैं वैसे पर के प्रान । tion of all life on this planet (P. 126) कैसे हरते दुष्ट जन बिना बैर पर प्रान ।। आइंस्टीन आदि कुछ प्रमुख विशेषज्ञों ने कहा है कि सर्वोदय पथ: वर्तमान स्थिति इतनी भयावह है कि उससे इस सर्वज्ञ तीर्थंकर महावीर ने सर्वोदय मार्ग का उपदेश भूमंडल पर विद्यमान जीवमात्र के विनाश की संभावना दिया है। उनका सर्वोदय बहुत व्यापक है। उसमें सर्व जीवों का, सर्वकालीन तथा सर्वांगीण उदय विद्यमान है । हिंसा की भावना पर निर्मित विकास या विलास स्वर्गीय राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद ने अपने एक का भवन शीघ्र धराशायी हो जाता है। भगवान बक्तव्य में कहा था, "जिन्होंने अहिंसा के मर्म को समझा महावीर के शिक्षण के विषय में आचार्य समन्तभद्र ने है, वे ही इस अंधकार में कोई रास्ता निकाल सकते हैं। कहा है "सर्वापदा मन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं जैन धर्म ने संसार को अहिंसा की शिक्षा दी है। आज । तदैव ।।" युक्त्मतुशासन । ६१ । आपका तीर्थ (शासन) संसार को अहिंसा की आवश्यकता महसूस हो रही है। समस्त संकटों का अन्त करनेवाला तथा स्वयं विनाश जैनियों का आज मनुष्य समाज के प्रति सबसे बड़ा रहित सर्वोदय रूप है। है कर्त्तव्य यह है कि वह कोई रास्ता ढूढ़ निकालें।" अहिंसा की महत्ता : भगवान महावीर ने संसार के दुःखों का मूल कारण भगवान की करुणामयी दृष्टि जीवमात्र के हिंसात्मक भावना और आचरण को कहा है। उनका यह उत्थान की थी। वे स्वार्थ पति के स्तर पर अहिंसासूत्र अत्यन्त मार्मिक है, "हिंसा प्रसूतानि सर्वदुःखानि"- हिंसा का विश्लेषण नहीं करते थे। उनकी करुणामयी ६२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रिका सर्व जगत को प्रकाश और आनंद प्रदान करती राधना द्वारा होती है । आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा हैथी। अहिंसा में अपार शक्ति है। गांधीजी ने उसका "अमृतत्वहेतुभूतं परमहिंसा रसायनम्" । ७८ । आश्रय लेकर भारत को स्वाधीन बनाया। इससे अहिंसा अहिंसा द्वारा अमत पद, (परम निर्वाण) प्राप्त होता की महत्ता, शक्ति तधा उपयोगिता स्पष्ट हो गई है। है। यह श्रेष्ठ रसायन है। इसमें मधुरता का रस भगवान ने कहा है "सत्थस्स सत्थं आC असंस्थस्स भरा है तथा इससे आत्मा की प्रसुप्त अनंत दिव्य सत्यं णत्थि" शस्त्र के मुकाबले में बड़ा शस्त्र बन शक्तिया विकसित हो जाती हैं। सकता है किन्तु अशस्त्र अर्थात् अहिंसा से बड़ा कोई दूसरा शस्त्र नहीं है । शस्त्र प्रयोग शत्रु का नाश करता ईश्वरभक्त भगवान को करुणा का सागर कहा है; वह शत्रुता का नाश नहीं करता है । अशोक ने करता है, इसलिए जिस व्यक्ति में जितनी मात्रा में कलिंग पर चढ़ाई कर उसे हराया था, किन्तु कुछ करुणा का सदभाव रहेगा उसमें उतनी मात्रा में दिव्यता समय बाद कलिंग सम्राट महामेघवाहन खारवेल ने की उपलब्धि रहेगी। शेक्सपियर ने कहा है Mercy मगध को जीतकर कलिंग को जयश्री प्रदान की। is an attribute to God Himself" दया ईश्वर अहिंसात्मक हथियार का चमत्कार यह है कि शत्रु का का ही गुण है। नाश न कर शत्रुता का नाश करता है। गांधीजी ने अंग्रेजी शासन को भारत से समाप्त कर दिया, किन्तु . आत्मबल भारत और अग्रेजों के बीच दुश्मनी का विष नहीं पनपा तथा उनके साथ मैत्री की दृष्टि विकसित हई। अहिंसा की साधना के लिए आत्मबल तथा वासनाओं पर विजय आवश्यक है। इसमें साधक यह बात स्मरण योग्य है कि वही अहिंसा शक्ति को अधोगामिनी प्रबत्तियों को उर्ध्वगामिनी बनाने शाली है, जिस पर माया या कपटाचार की छाया नहीं का सकचा पुरुषार्थ और पराक्रम करना पड़ता है। साधारणतया जल का अधोगमन होता है। नदी को निम्नगा इससे कहते हैं, कि उसका पानी सदा अहिंसा अमर जीवन प्रदान करती है। जिस अहिंसा- नीची भूमि की ओर प्रवाहित होता है, उस जल को मयी साधना के द्वारा यह साधक अमतत्व तथा परम ऊँचाई पर पहुँचाने के लिए विशेष श्रम और उद्योग ब्रह्म पद को प्राप्त कर सकता है, उसके द्वारा लौकिक जरूरी हैं, इसी प्रकार आत्मा को अहिंसा के उदात्त पथ तथा मानसिक शांति को प्राप्त करना कठिन नहीं है। पर पहुंचाने के लिए विशेष प्रयत्न तथा आत्मबल 'हिंसा' का पर्यायवाची शब्द 'मृत्यु' है अतः हिसा का बांछनीय है । काका कालेलकर ने कहा है, "बिना परिनिषेधवाचक 'अहिंसा' का पर्यायवाची 'अमत्यू' होगा। श्रम किए हम अहिंसक नहीं बन सकते । अहिंसा की उपनिषद में मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य में कहा था, आज साधना बड़ी कठिन है। एक ओर पोद्गलिक भाव तपोवन को अमृतत्व के लिए प्रयाण कर रहे हैं, तो खींचतान करता है, दूसरी ओर आत्मा सचेत बनता है। मैं धनादि सामग्री को लेकर क्या करूगी, जबकि उससे दूसरों का हित हृदय में रहने से आत्मा धार्मिक श्रद्धाअमृतत्व की उपलब्धि नहीं होती है। "किमहं तेन बान बनता है। आज की मानवता को युद्ध के दाबानल कूर्माम् मेनाहं नामता स्याम"--उस अमत पद (Life से मुक्त करने का एक मात्र उपाय भगवान महावीर immortal) की प्राप्ति अहिंसा की श्रेष्ठ समा- की अहिंसा ही है।" Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यसन त्याग व्यक्ति तथा समष्टि के हित की दृष्टि से अहिंसा के साधक को अपनी प्रवृत्तियों को सदाचार से समलंकृत करना आवश्यक है। इन सप्त व्यसनों का परित्याग अत्यन्त आवश्यक है, कारण इन व्यसनों से आत्मा का पतन होता है तथा विश्व को भी हानि पहुँचती है । जुआ, आमिष, मदिरा, दारी, आखेटक, चोरी, परनारी । ये ही सात व्यसन दुःखदाई, दुरितमूल दृरगति के भाई । । अहिंसा की साधना द्वारा ही सच्ची सर्वोदय की स्थिति उपलब्ध होती है । सत्य, अचौर्य, शील, अपरिग्रह, निरभिमानता, संयम आदि सत्यप्रवृत्तियां अहिंसा के अंतर्गत हैं। तत्वार्थ सूत्र में कहा है, प्रमतयोगात्प्राण व्यपरोपणं हिंसा" - प्रमत्त योग अर्थात् क्रोधादि विकारों से मुक्त हो प्राणों का घात करना हिंसा है। ऐसी हिसा का त्याग निर्मल मनोवृत्ति पर निर्भर है। उस निर्मन मनःस्थिति के हेतु बाह्य प्रवृत्तियां उज्जवल रहनी चाहिये । मांस सेवन करने से मनोवृत्ति मलिन होती है। शराब का सेवन भी आत्मा में विकारी भावों को उत्पन्न करता है । एक शराब प्रेमी कहता है कि मद्यपान से आत्मा को कोई हानि नहीं पहुंचती । मजहब में पक्का विश्वास रखने पर बाहरी स्वच्छन्द आचरण कुछ भी क्षति नहीं पहुंचा सकता। खाने-पीने से आत्मविकास तथा धर्म का सम्बन्ध है । वह विलासी जीवन का प्रतिनिधि बन पूछता है जाहिद शराब पीने से काफिर बना मैं क्यों ? क्या डेढ़ चुल्लु पानी में ईमान बह गया । सत्पुरुषों का अनुभव यही धारणा हमारे विश्वहित की चिन्ता में निमग्न रहनेवाले प्रमुख लोगों को मांस, मदिरा आदि को सेवन करने में उत्साहित करती है किन्तु सात्विक * आचार, विचारवाले महापुरुषों का अनुभव है कि आहार की शुद्धता का विचारों पर प्रभाव प्रत्यक्ष गोचर है । अपने राजयोग में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं, " हमें उसी प्रकार का आहार ग्रहण करना चाहिए, जो हमें सबसे अधिक पवित्र मन दे। हाथी आदि बड़े जानवर शान्त और नम्र मिलेंगे। सिंह और चीते की ओर जाओगे, तो वे उतने ही अशान्त मिलेंगे। यह अन्तर आहार भिन्नता के कारण है।" हिरण शाकाहारी है, बिल्ली मांसाहारी है; दोनों के जीवन का निरीक्षण बताता है कि हिरण जहाँ शान्त रहता है, वहाँ मार्जार क्रूरतापूर्ण आचरण के कारण अशांत अवस्था में पाया जाता है। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है "मन का शरीर के साथ निकट संबंध है। विकार मुक्त मन विकार पैदा करने वाले भोजन की ही खोज में रहता है । विकृत मन नाना प्रकार के स्वादों और भोगों को ढूंढता फिरता है और फिर उस आहार और भोगों का प्रभाव मन के ऊपर पड़ता है। मेरे अनुभव ने तो मुझे यही शिक्षा दी है, कि जब मन संयम की ओर झुकता है, तब भोजन की मर्यादा तथा उपवास खूब सहायक होते हैं । इनकी सहायता के बिना मन को निर्विकार बनाना असंभव सा ही मालूम होता है ।" (आत्मकथा ख. 5 पृ. 112-131) वैज्ञानिकों ने इस बात को स्वीकार किया है कि मांस, मदिरा आदि के द्वारा शक्ति तथा आरोग्य का प्राप्त करना ऐसा ही है जैसे चाबुक के जोर से सुस्त घोड़े को तेज करना । यूरोप के मनीषी महात्मा टाल्सटाय ने कहा है, 'मांस खाने से मनुष्य की पाशाविक प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं, काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने और शराब पीने की इच्छा होती है । इन सब बातों के प्रमाण सच्चे और शुद्ध सदाचारी नवयुवक, विशेषकर स्त्रियाँ और तरुण लड़कियां हैं जो इस बात को साफ साफ कहती हैं, कि मांस खाने के बाद काम की उत्तेजना और अन्य पाशविक वृत्तियां अपने आप प्रबल हो जाती है।" उनके ये शब्द विवेकी तथा सच्चे सुधार के प्रेमी को Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में रखने योग्य हैं, "मांस खाकर सदाचारी बनना रसीली वनस्पतियाँ हैं । अनेक प्रकार के अन्न हैं, जिन्हें असंभव है। वर्नादशा की यह उक्ति मननीय है, "मैं आग के द्वारा मृदु एवं सुपाच्य बनाया जा सकता है। यह बात दृढ़तापूर्वक कहता हूँ, कि मदिरा तथा मृत पोषक दूध है। उदार पृथ्वी माता विविध भांति की शरीरों का भक्षण करने वाला मानव ऐसे श्रेष्ठ कार्य विपुल खाद्य सामग्री देती है तथा रक्तपात के बिना नहीं कर सकता जिसकी क्षमता उसमें विद्यमान रहती। मधुर एवं शक्तिप्रद भोजन देती है। नीची श्रेणी के प्राणी अपनी क्र र भूख को मांस के द्वारा शान्त करते हैं, परन्तु सभी ऐसे नहीं हैं । घोड़ा, गाय, बकरी, भेड़, शंका बैल घास पर ही जीवित रहते हैं। अरे मरणशील मानवो ! तुम मांस को छोड़ दो। मांसाहार के दोषों कोई-कोई शाकाहार और मांसाहार को समान पर ध्यान दो। मारे गए बैल के लोथड़े जब तुम्हारे मानते हए कुतर्क करते हैं, जैसे जीव का घात मांस में सामने आवे, तब यह समझ और अनुभव कर कि तू होता है, वैसे ही वनस्पति सेवन में जीव का घात समान अन्न-फल पैदा करनेवालों को खाने जा रहा है।" रूप से पाया जाता है। प्राणी का अंगपना वनस्पति और मांस में समान रूप से है, किन्तु उनके स्वभाव में अंतर है । अन्न भोजन है तथा मांस, अण्डा आदि पदार्थ सर्वथा मूल गुण त्याज्य हैं। स्त्रीयों की अपेक्षा माता और पत्नी समान भगवान महावीर ने सच्ची उन्नति के लिए साधक हैं, किन्तु भोग्यत्व की अपेक्षा पत्नी ही ग्राह्य कही जाती को अपने मनोमंदिर में भगवती अहिंसा को प्रतिष्ठित है, माता नहीं। एक बात और है। बनस्पति को पानी करके मांस, मद्य, मधु, स्थूल हिंसा, स्थूल असत्य, स्थूल से उत्पन्न होने के कारण 'आबी' (जल से उत्पन्न) स्तेय, परस्त्री सेवन तथा अमर्यादित परिग्रह वृत्ति का कहते हैं । मांस को रज, वीर्य से उत्पन्न होने के कारण त्याग करना चाहिए। आत्मविकास के लिए ये अष्ट पेशाबी कहा जाता है । मूत्रादि से उत्पन्न शरीर पिण्ड मूल गुण आवश्यक है । रत्नकरण्डश्रावकाचार में का भक्षण करना सभ्य तथा सुसंस्कृत व्यक्ति के लिए समंतभद्र आचार्य ने लिखा है। उचित नहीं है। मद्य मांस मधु त्यागः सहाणुव्रतपंचकम् ॥ अष्टौ मूलगुणाबाहु हिणां श्रमणोत्तमाः। ॥661 जो लोग ईश्वर को विश्व निर्माता तथा जगत् पिता कहते हैं, उन्हें टी. एल. वस्वानी कहते हैं, "पक्षी या पशु को प्रेम न करना मेरे लिए प्रभु को प्रेम न करना है, क्योंकि पशु-पक्षी भी उसके इसी तरह बच्चे हैं जैसे मानव प्राणी।" श्रमणोत्तम भगवान ऋषभ देव, भगवान महावीर आदि ने मद्य, मांस, मधु के त्याग के साथ अहिंसा आदि पंच अणुव्रतों को गृहस्थों के आठ मूल गुण कहा है । गृहस्थ की अहिंसा पायथोगोरस यूनानी तत्ववेत्ता की वाणी बड़ी मार्मिक है, “ऐ नश्वर मनुष्यो । अपने शरीर को घृणित आहार से अपवित्र करना बन्द करो। जगत् में तुम्हारे लिए रसभरी फल राशि है जिनके बोझ से शाखाएँ झुक गई हैं। मधुर द्राक्षाओं से लदी हुई लताएँ हैं, इस अहिंसा की साधना गृहस्थ और श्रमण के भेद से दो प्रकार की है। कृषि, वाणिन्य, राष्ट्र संरक्षण तथा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य उत्तरदायित्वों के होते हुए गृहस्थ पूर्ण रीति से चक्र ण यः शत्रुभयंकरेण जित्या नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । अहिंसा का पालन नहीं कर सकता है। उसके लिए यह समाधिचक्रण पुजिगाय महोदयो दुर्जप मोहचक्रम् । उचित है कि अपनी जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए अधिक-से-अधिक करुणाशील बनने का प्रयत्न करे। जैन ग्रंथों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कम-से-कम इरादतन-संकल्पी हिंसा (Intentional) tentional कि कम कि कम-से-कम भी अहिंसा का पालन करनेवाला का परित्याग अवश्य करे । मांसभक्षण, शिकार अपनी कमजोरियों पर विजय पाता हुआ श्रेष्ठ अहिंसक खेलना आदि क्र रकम संकल्पी हिंसा के अंतर्गत होने श्रमण की अवस्था को प्राप्त करता है, तथा अन्त में से त्याज्य हैं। जैन क्षत्रिय स्वयं मांसादि का त्याग परम निर्वाण को प्राप्त कर जन्म, जरा, मरण के चक्कर करता हुआ लोक संरक्षण, न्याय-परित्राण, तथा सत्पुरुषों से सदा के लिए विमुक्त हो जाता है। के रक्षणार्थ अस्त्र शस्त्रादि का भी प्रयोग करता है, क्योंकि उस प्रक्रिया के द्वारा व्यापक अन्याय, अत्याचार आकांक्षाओं पर नियंत्रण आदि का दमन होने से प्रकारान्तर से करुणा, शील, अहिंसा की साधना के लिए गृहस्थ को धन-वैभव सदाचार आदि अहिंसात्मक प्रवृत्तियों का संरक्षण एवं आदि की लालसा को कम करना चाहिए; आत्मा चेतना संवर्धन होता है । महर्षि जिन सेन ने महापुराण में कहा ज्योति स्वरूप है; धनादि परिग्रह आत्मा से भिन्न हैं, है, "प्रजाः दण्डधराभावे मात्स्यं न्यायं श्रमन्त्मम्" जो उसकी मृत्यु के समय यहाँ ही पड़े रहते हैं। अतः (16-252) यदि शासक दण्ड धारण करने में प्रमाद विवेकी गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह अपने पास की दिखावे, तो जगत् में हाहाकार मच जायगा । मात्स्य अधिक संपत्ति को सत्कार्यों में व्यय करे। संग्रहशील न्याय-जिसमें बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती व्यक्ति की शहद की मक्खी के समान दुर्दशा होती है-प्रवृत्त हो जायगा । अत्याचारी सशक्त व्यक्तियों का बोलबाला हो जायगा। अपभ्र श भाषा के महाकवि पुण्यदन्त ने कहा है, "रण चंगउ दीण परिरक्खणेण, मक्खी बैठी शहद पर पंख लिए लिपटाय । पोरुसु सरणागम रक्खणेण"-दीनों के रक्षणार्थ युद्ध हाथ मलै अरु सिर धून लालच बुरी बलाय। करना अच्छा है, शरणागत का रक्षण यथार्थ पौरुष है। गृहस्थ क्षत्रिय नरेश जैन धर्मानुसार अपना व्यक्तिगत मनुष्य स्वामाविक आकांक्षाओं को पूरा किया जा जीवन करुणापूर्ण रखते हुए अपने उत्तरदायित्व को सकता है, धनादि की लालसा कृत्रिम अभिलाषा को ध्यान में रख शस्त्रादि का संचालन करते थे। तीर्थकर नहीं पूरा किया जा सकता है। सिकन्दर से भारतीय शान्तिनाथ भगवान ने चक्रवर्ती नरेन्द्र की अवस्था में संत दंदमिस (Dandamis) ने कहा था, "स्वाभाविक चक्र के द्वारा नरेन्द्र समुदाय को जीता था, पश्चात् इच्छाएं जैसे प्यास को पानी द्वारा दूर किया जा सकता राज्य त्याग कर श्रमण वृत्ति अंगीकार करने पर उन्होंने है, भूख को भोजन द्वारा पूर्ति हो सकती है, किन्तु समाधि आत्म ध्यान के द्वारा मोह की सेना को परास्त धनादि की लालसा अस्वाभाविक होने से वह बढ़ती ही किया था। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है : जाती है और कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती है।" o to Dandamis told Alexander that natural desires are quenched easily, thirst by water hunger by food but the craving for possessions is an artificial one. It goes on unceasingly and never is fully satisfied (Speech by Dr. S. Radhakrishnan in inaugurating XXVI International Congress of Orientalists, New Delhi 1964) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेष्ठ साधक बात कही है, The fewer are our wants the more we resemble gods. हमारी जितनी-जितनी जैन धर्म में दिगम्बर मूनि परिग्रह मात्र का त्याग आवश्यकताएँ कम होती हैं उतना हम दिव्यता के समीप करके श्रेष्ठ अहिंसा तथा आत्मशांति का सजीव पहुँचते हैं। उदाहरण उपस्थित करते हैं । परिग्रह त्यागी के चरणों के समीप विश्व का वैभव नतमस्तक होता है। एक कवि भीषण स्थिति कहता है : वर्तमान युग की यांत्रिक पद्धति के कारण जगत् में धनवान और धनहीनों के बीच बड़ी गहरी खाई बन चाह घटी चिन्ता हटी मनुआ बे परवाह । गई है । इसके कारण हिंसा का ज्वालामुखी सर्वसंहार जिन्हें कल नहिं चाहिये वे शाहनपति शाह । हेतु जागृत हो रहा है। इस महा विपत्ति से बचने का अपरिग्रहत्व तथा अकिंचन वृत्ति पर गांधीजी के उपाय भगवान महावीर का सीमित परिग्रह रखना तथा शब्द बड़े अनुभवपूर्ण हैं, "सच्चे सुधार का सच्ची सभ्यता अनावश्यक संपत्ति को सत्कर्मों में स्वेच्छा से लगाना का लक्षण परिग्रह बढ़ाना नहीं है, बल्कि उसका विचार है। राजकीय अनेक कदम धनिकों को उनके अंधकारऔर इच्छापूर्वक घटाना है । ज्यों-ज्यों परिग्रह घटाइये मय भविष्य का उद्बोधन करा रहे हैं। एक कवि कहता त्यों-न्यों सच्चा सुख और संतोष बढ़ता है, सेवा शक्ति है : बढ़ती है। आदर्श और आत्यंतिक अपरिग्रह तो उसी दातव्यं भोक्तव्यं सति विभवे संचयो न कर्तव्यः का होगा जो मन से और कर्म से दिगम्बर है। मतलब यश्येह मधुकरीणां संचितमर्थं हरन्त्यन्ये । वह पक्षी की भांति बिना घर के, बिना वस्त्रों के, बिना अन्न के वितरण करेगा । (गांधी वाणी प्र.98) अविद्या धन वैभव के प्राप्त होने पर सत्कार्यों में संपत्ति का से अभिभूत व्यक्ति ईसा के इस उपदेश को भूल जाता विनियोग करो तथा स्वयं भी उसका उपयोग करो। है कि Naked I came from my mother's देखो उस भ्रमरी को, जिसका संचित मधू दुसरे छीन womb and naked shall I go thither. मैं अपनी लेते हैं । माता के उदर से दिगम्बर रूप में आया था, तथा उसी महावीर की शिक्षा अवस्था में यहाँ से उसी स्थल पर चला जाऊंगा । आचार्य गुणभद्र आत्मानुशासन में मार्मिक शिक्षा देते भगवान महावीर ने कहा था अनित्यानि शरीराणि विभवोनैव शाश्वतः । सन्निहितं च सदा मत्युः कर्तव्यो धर्म संग्रहः ॥ अधो जिघृक्षवो यान्ति यान्त्यूर्व मजिघक्षवः । इति स्पष्टं वदन्तौ वा नामोन्नामौ तुलान्तयो ।। शरीर अनित्य है, वैभव सदा नहीं रहेगा, मृत्यु ॥154 ।। सदा समीप है, अतः धर्म का संग्रह करना चाहिए। अकबर का कथन सत्य हैतराजू के दोनों पलड़े यह बताते हैं कि लेने की आगाह अपनी मौत से कोई वशर नहीं। इच्छावाला प्राणी लदे पलड़े के समान नीचे जाता है सामान सौ बरस का है पल की खबर नहीं। और न लेने की इच्छावाला प्राणी खाली पलड़े के सेठ जी को फिक्र थी एक-एक के दस कीजिये। समान उन्नत दशा को पाता है । सुकरात ने बड़ी सुन्दर मोत आ पहुँची कि हजरत जान वापिस कीजिए। ६७ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं अपरिग्रह के समर्थन में कबीर की वाणी आज के व्यक्त करने में असमर्थ है, अतः तुम्हारी दृष्टि में यह गगनचुबी भवन निर्माताओं को चेतावनी देती है, बात रहनी चाहिए कि मैंने सत्य का एक अंश ग्रहण कहा चुनाव में दिया लावी भीत उसार // किया है, वह पूर्ण सत्य नहीं है। दूसरे व्यक्ति ने सत्य के / घर तो साढे तीन हथ धना कि पौने चार // अन्य अंश को ग्रहण किया है। उसकी दृष्टि से वह भी भगवान महावीर ने आत्मा को उसके उत्थान तथा सत्य है / सत्य पर मेरा सर्वाधिकार (monopoly) पतन में स्वतंत्र कहा है / सत्तचूड़ामणि में कहा है- नहीं है। इस समन्वय दृष्टि को स्याद्वाद दर्शन कहते त्वमेव कर्मणां कर्ता भोक्ता च फलसंततेः / हैं / सन् 1935 में मैं गाँधीजी से वर्धा के आश्रम में भोक्ता च तात कि मुक्ती स्वाधीनायां न चेष्ट से मिला था उस समय उन्होंने कहा था, "जैन धर्म का // 11-45 // स्याद्वाद सिद्धान्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।" कबीर ने हे आत्मन् ! तू ही अपने कर्मों को बांधता है. उनके सुन्दर बात कही है-- फलों को तू ही भोगता है तथा तु ही उनकर्मों का नदिया एक घाट बहुतेरे। क्षय करने की क्षमता संपन्न है। इस प्रकार तेरी मुक्ति कहत कवीर वचन के फेरे। तेरे हाथ में है, उसके लिए क्यों नहीं चेष्टा करता है ? इस चिंतन पद्धति के द्वारा धामिक मैत्री का महा मुक्ति मार्ग प्रासाद निर्माण किया जा सकता है। भगवान ने कहा, शक्ति रूप से संसारी जीव परमात्मा है, कर्मों के कारण ___ तत्वार्थ सूत्र में कहा है 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि वह दीन बन रहा है। परमात्म प्रकाश में कहा है-- मोक्षमार्ग' :--सम्यग्दर्शन (आत्मश्रद्धा), सम्यग्ज्ञान एहु जि अप्पा सो परमप्पा कम्मविसेसे जायउ जप्पा। (आत्मज्ञान) तथा सम्यक्चारित्र (आत्म स्वरूप में जामह जाणह अप्पे अप्पा तामह सो गि देउ परमप्पा। स्थिरता) में तीनों मोक्ष के मार्ग है। इसे ही भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य का संगम रूप त्रिवेणी कहा जाता है। यह आत्मा यथार्थ में परमात्मा है, कर्मों के कारण टेनीसन ने इस रत्नत्रय नाम से विख्यात जैन तत्वज्ञान वह संसारी आत्मा बनता है। वह जब अपनी आत्मा को इस प्रकार कहा है-- को अपने रूप में जानता है तब वह परमात्मा हो जाता Self reverence, Self-knowledge Self-Control है। These thre alone lead life to Soverign power. सारआत्मश्रद्धा, आत्मज्ञान तथा आत्म निमंत्रण (सयम) सर्वोदय के लिए भगवान ने कहा थाये तीनों मिलकर जीव को पूर्ण शक्ति संपन्नता (परमात्म अभयं यच्छ जीवेषु कुरु मैत्री मनिन्दिताम / प्रदान करते हैं। पश्यात्म सदृशं विश्वं जीवलोकं चराचरम् / / समन्वय दृष्टि संपूर्णजीवों को अभय प्रदान करो, सबके प्रति निर्मल भगवान ने वस्तु को अनंतगुणों का पुज बताते हुए मैत्री धारण करो तथा चराचर विश्व को अपने समान कहा है, कि तुम्हारी वाणी पूर्ण सत्य को एक साथ समझो। 68