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________________ ध्यान में रखने योग्य हैं, "मांस खाकर सदाचारी बनना रसीली वनस्पतियाँ हैं । अनेक प्रकार के अन्न हैं, जिन्हें असंभव है। वर्नादशा की यह उक्ति मननीय है, "मैं आग के द्वारा मृदु एवं सुपाच्य बनाया जा सकता है। यह बात दृढ़तापूर्वक कहता हूँ, कि मदिरा तथा मृत पोषक दूध है। उदार पृथ्वी माता विविध भांति की शरीरों का भक्षण करने वाला मानव ऐसे श्रेष्ठ कार्य विपुल खाद्य सामग्री देती है तथा रक्तपात के बिना नहीं कर सकता जिसकी क्षमता उसमें विद्यमान रहती। मधुर एवं शक्तिप्रद भोजन देती है। नीची श्रेणी के प्राणी अपनी क्र र भूख को मांस के द्वारा शान्त करते हैं, परन्तु सभी ऐसे नहीं हैं । घोड़ा, गाय, बकरी, भेड़, शंका बैल घास पर ही जीवित रहते हैं। अरे मरणशील मानवो ! तुम मांस को छोड़ दो। मांसाहार के दोषों कोई-कोई शाकाहार और मांसाहार को समान पर ध्यान दो। मारे गए बैल के लोथड़े जब तुम्हारे मानते हए कुतर्क करते हैं, जैसे जीव का घात मांस में सामने आवे, तब यह समझ और अनुभव कर कि तू होता है, वैसे ही वनस्पति सेवन में जीव का घात समान अन्न-फल पैदा करनेवालों को खाने जा रहा है।" रूप से पाया जाता है। प्राणी का अंगपना वनस्पति और मांस में समान रूप से है, किन्तु उनके स्वभाव में अंतर है । अन्न भोजन है तथा मांस, अण्डा आदि पदार्थ सर्वथा मूल गुण त्याज्य हैं। स्त्रीयों की अपेक्षा माता और पत्नी समान भगवान महावीर ने सच्ची उन्नति के लिए साधक हैं, किन्तु भोग्यत्व की अपेक्षा पत्नी ही ग्राह्य कही जाती को अपने मनोमंदिर में भगवती अहिंसा को प्रतिष्ठित है, माता नहीं। एक बात और है। बनस्पति को पानी करके मांस, मद्य, मधु, स्थूल हिंसा, स्थूल असत्य, स्थूल से उत्पन्न होने के कारण 'आबी' (जल से उत्पन्न) स्तेय, परस्त्री सेवन तथा अमर्यादित परिग्रह वृत्ति का कहते हैं । मांस को रज, वीर्य से उत्पन्न होने के कारण त्याग करना चाहिए। आत्मविकास के लिए ये अष्ट पेशाबी कहा जाता है । मूत्रादि से उत्पन्न शरीर पिण्ड मूल गुण आवश्यक है । रत्नकरण्डश्रावकाचार में का भक्षण करना सभ्य तथा सुसंस्कृत व्यक्ति के लिए समंतभद्र आचार्य ने लिखा है। उचित नहीं है। मद्य मांस मधु त्यागः सहाणुव्रतपंचकम् ॥ अष्टौ मूलगुणाबाहु हिणां श्रमणोत्तमाः। ॥661 जो लोग ईश्वर को विश्व निर्माता तथा जगत् पिता कहते हैं, उन्हें टी. एल. वस्वानी कहते हैं, "पक्षी या पशु को प्रेम न करना मेरे लिए प्रभु को प्रेम न करना है, क्योंकि पशु-पक्षी भी उसके इसी तरह बच्चे हैं जैसे मानव प्राणी।" श्रमणोत्तम भगवान ऋषभ देव, भगवान महावीर आदि ने मद्य, मांस, मधु के त्याग के साथ अहिंसा आदि पंच अणुव्रतों को गृहस्थों के आठ मूल गुण कहा है । गृहस्थ की अहिंसा पायथोगोरस यूनानी तत्ववेत्ता की वाणी बड़ी मार्मिक है, “ऐ नश्वर मनुष्यो । अपने शरीर को घृणित आहार से अपवित्र करना बन्द करो। जगत् में तुम्हारे लिए रसभरी फल राशि है जिनके बोझ से शाखाएँ झुक गई हैं। मधुर द्राक्षाओं से लदी हुई लताएँ हैं, इस अहिंसा की साधना गृहस्थ और श्रमण के भेद से दो प्रकार की है। कृषि, वाणिन्य, राष्ट्र संरक्षण तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211506
Book TitleMahavir ka Sarvodaya Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Society
File Size730 KB
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