Book Title: Mahavir aur unki Samajik Kranti
Author(s): Chandanmal Vaidya
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 2
________________ शासित या निर्धारित करती हो अथवा संसार को चलाती उन्होंने नर के समान सम्मान एवम् स्थान प्रदान हो । मनुष्य स्वयं अपना स्वामी है, वह जो कुछ करता किया। है उसका परिणाम उसे स्वयं को ही जन्म जन्मान्तर में भोगना होगा। कोई दूसरी शक्ति उसे इससे मुक्त नहीं इस प्रकार भगवान महावीर ने साम्प्रदायिक भेदों करा सकती, इससे तो वह स्वयं के ही सदकर्मों से मुक्ति को समाप्त कर पाखंडवाद व वर्ण एवं वर्ग भेद की पा सकता है। जौंजीरों को तोड़कर प्राणी मात्र के सहअस्तित्व व लोककल्याण का; तथा मनुष्य की जन्मगत महानता के तीर्थंकर महावीर और उनसे पूर्व तीर्थकरों द्वारा स्थान पर सदकार्यों से उनकी महानता व ईश्वर अवतारवाद की धारणा का खण्डन कर उन पर मान- सम्ब म सम्बन्धी अवतार वादी विचार के स्थान पर शुद्ध आत्मा वीय मूल्यों की महत्ता, उनके धर्म का विशिष्ट गुण है। ही परमात्मा का विचार देकर मानव धर्म की स्थाअन्य संस्कृतियों में जहां विभिन्न महापुरुषों को धर्म पना कर मानवीयता को नई दिशा दी। गुरुओं ने ईश्वरवाद के चौखटे में जड़, मानव से अलग कर उन्हें ईश्वरीय अवतार के रूप में प्रतिष्ठित किया तीर्थकर महावीर ने अपने क्रान्तिकारी विचारों के और उनके व्यक्तित्व को विकृत कर अवतारवादी ढांचे कारण समाज व्यवस्था के सभी कारकों को आन्दोलित में जड़ दिया। वहां तीर्थकर महावीर के अनुयायीयों की कर नवीन स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने प्रत्येक मनुष्य यह महत्वपूर्ण उपलब्धि ही कही जायगी कि उन्होंने को पुरुषार्थ प्रदर्शित करने को प्रेरित किया तथा श्रम को अपने को इससे मुक्त रख महावीर को तीर्थकर या महा जीवन का आवश्यक अंग बताते हुए उसकी अनिवार्यता मानव के रूप में ही प्रतिष्ठित किया जिसके कारण सिद्ध कर तत्कालीन समाज में आर्थिक विषमता के मानवीय मूल्यों की स्थापना में जैन संस्कृति अग्रणी कारण उत्पन्न वर्ग भेद पर भी प्रहार किया जिसके मानी जाती है। कारण तत्कालीन समाज दो वर्गों में बंट गया था, एक कुलीन तथा शोषक वर्ग और दूसरा निम्न तथा शोषित सालीन भारत जलित वर्ग। तीर्थंकर महावीर स्वयं राजपूत्र होने के नाते वर्ण व्यवस्था तथा दास व्यवस्था पर भी प्रहार किया संग्रहवृत्ति से उत्पन्न दोषों तथा समस्याओं से परिचित जिसमें मनुष्य की जन्मगत महानता स्थापित होती थी। थे । इस व्यवस्था के विकल्प में उन्होंने अपरिग्रह दर्शन उन्होंने कहा कि सभी मनुष्य एक से पैदा होते हैं, सभी दे, मनुष्य को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति को अपना विकास करने का समान अधिकार है । मनुष्य हेतु परिग्रह ब्रत धारण करने की शिक्षा दी। की प्रतिष्ठा और स्थान जन्मगत विशेषताओं के आधार पर नहीं वरन उसके गुणों एवम् सदकर्मों पर आधारित इस प्रकार जहां तीर्थंकर महावीर नं सामाजिक हो, इसलिये उन्होंने जन जागृति का माध्यम अपनाया व्यवस्था में मूलभत परिवर्तन कर आदर्श उन्होंने अनेकों शूद्रों को दीक्षित किया तथा दासों को स्थापना पर बल दिया वहां सम्पूर्ण जीवन दर्शन प्रदान मुक्त कराकर उन्हें सम्मान जनक स्थान दिया। उनके कर आदर्श परिवार पर भी बल दिया था तथा ग्रहस्थ उपदेशों के समय सभी जाति, वर्ग और वर्ण के नर- एव साधु के लिये प्रथक-प्रथक आचार संहिता दी। नारी ही नहीं वरन सभी प्रकार के जीव साथ बैठकर उन्होंने इकाई के सुधार पर बल देते हुए प्रत्येक व्यक्ति उपदेश सुनते थे । अनेकों नारियों को दीक्षित कर को दशलक्षण धम तथा पंच महाव्रतों के पालन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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