Book Title: Mahavir Vitrag Vyaktitva Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 4
________________ दर्शन-दिग्दर्शन रुपया घट जायें, शरीर में से कुछ खून घट जाये तो इसे घटना नहीं कहा जाता। वन में ही तो महावीर रागी से वीतरागी बने थे, अल्पज्ञानी से पूर्णज्ञानी बने थे। सर्वज्ञता और तीर्थेकरत्व वन में ही तो पाया था। क्या ये घटनाएं छोटी हैं ? क्या कम हैं ? इनसे बड़ी भी कोई घटना हो सकती है। मानव से भगवान बन जाना कोई छोटी घटना है ? पर जगत्को तो इसमें कोई घटना सी ही नहीं लगती। तोड़-फोड़ की रुचि वाले जगत को तोड़-फोड़ में ही घटना नजर आती है, अन्तर में शांति से जो कुछ घट जाय, उसे वह घटना-सा नहीं लगता। अन्तर में जो कुछ प्रतिपल घट रहा है वह तो उसे दिखाई नहीं देता,बाहर में कुछ हलचल हो तभी कुछ घटा-सा लगता है। जब तक देवांगनाएं लुभाने को न आवें और उनके लुभाने पर भी कोई महापुरुष न डिगे, तब तक हमें उसकी विरागता में शंका बनी रहती है। जब तक कोई पत्थर न बरसाए, उपद्रव न करे और उपद्रव में भी कोई महात्मा शांत न बना रहे, तब तक हमें उसकी वीत द्वेषता समझ में नहीं आती। यदि प्रबल पुण्योदय से किसी महात्मा के इस प्रकार के प्रतिकूल संयोग न मिलें तो क्या वह वीतरागी और वीतद्वेषी नहीं बन सकता? क्या वीतरागी और वीतद्वेषी बनने के लिए देवांगनाओं का डिगना और राक्षसों का उपद्रव करना आवश्यक है ? क्या वीतरागता इन घटनाओं के बिना प्राप्त और संप्रेषित नहीं की जा सकती? क्या मुझे क्षमाशील होने के लिए सामने वालों का मुझे सताना, गाली देना जरूरी है ? क्या उनके सताए बिना मैं शांत नहीं हो सकता ? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो बाह्य घटनाओं की कमी के कारण महावीर के चरित्र में रूखापन मानने वालों और चिन्तित होने वालों के लिए विचारणीय है। ___ महावीर के साथ वन में क्या घटा था ? वन में जाने से पूर्व ही महावीर बहुत कुछ तो वीतरागी हो ही गये थे, रहा-सहा राग भी तोड़, पूर्ण वीतरागी बनने चल पड़े थे। उन्होंने सब कुछ छोड़ा था, कुछ ओढ़ा न था। वे साधु बने नहीं, हो गये थे। साधु बनने में वेष पलटना पड़ता है, साधु होने में स्वयं ही पलट जाता है। वस्तुतः साधु की कोई डेस नहीं है, सब डेसों का त्याग ही साधु का वेष है। डेस बदलने से साधुता नहीं आती, साधुता आने पर डेस छूट जाती है। साधुता बंधन नहीं है, उसमें सर्व बंधनों की अस्वीकृति है। साधु का कोई वेष नहीं होता, नग्नता कोई वेष नहीं, वेष साज-श्रृंगार है, साधु को सजने-संवरने की फुर्सत ही Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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