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स्वः मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
भगवान महावीर वीतराग व्यक्तित्व
भगवान महावीर के आकाशवतविशाल और सागर से गंभीर व्यक्तित्व को बालक वर्द्धमान की बाल-सुलभ क्रीड़ाओं से जोड़ने पर उनकी गरिमा बढ़ती नहीं वरन खण्डित होती है । 'सन्मति' शब्द का कितना भी महान अर्थ क्यों न हो, वह केवल ज्ञानी की विराटता को अपने में नहीं समेट सकता। केवलज्ञानी के लिए सन्मति नाम छोटा ही पड़ेगा, ओछा ही रहेगा । वह केवल ज्ञानी की महानता व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो सकता । जिनकी वाणी एवं दर्शन ने अनेकों की शंकाएं समाप्त की हों, अनेकों को सन्मार्ग दिखाया हो, सत्पथ में लगाया हो; उनकी महानता को किसी एक की शंका को समाप्त करने वाली घटना कुछ विशेष व्यक्त नहीं कर सकती।
बढ़ते तो अपूर्ण हैं । जो पूर्णता को प्राप्त हो चुका हो - उसे 'वर्द्धमान' कहना कहां तक सार्थक हो सकता है ? इसी प्रकार महावीर की वीरता को सांप और हाथी वाली घटनाओं से नापना कहां तक संगत है ? यह एक विचारने की बात है। यद्यपि महावीर के जीवन सम्बन्धी उक्त घटनाएं शास्त्रों में वर्णित हैं, तथापि वे बालक वर्द्धमान को वृद्धिगत बताती हैं, भगवान महावीर को नहीं। सांप से न डरना बालक बर्द्धमान के लिए गौरव की बात हो सकती है, हाथी को वश में करना राजकुमार बर्द्धमान के लिए प्रशंसनीय कार्य हो सकता है, भगवान महावीर के लिए नहीं । आचार्यों ने उन्हें यथास्थान ही इंगित किया है। वन-विहारी पूर्ण अभय को प्राप्त महावीर सर्वस्वातंत्रय के उदघोषक तीर्थंकर भगवान महावीर के लिए सांप से डरना, हाथी को काबू में रखना क्या महत्त्व रखते है ?
डा. हुकमचन्द भारिल्ल
जिस प्रकार बालक के जन्म के समय इष्ट मित्र व सम्बन्धी जन वस्त्रादि लाते हैं और कभी-कभी तो सैंकड़ों जोड़ी वस्त्र बालक के लिये इकट्ठे हो जाते हैं | लाते तो सभी बालक के अनुरूप ही हैं, पर वे सब कपड़े तो बालक को पहिनाए नहीं जा सकते। बालक दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है, वस्त्र तो बढ़ते नहीं । जब बालक २०-२५ वर्ष का हो जावे,
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तब कोई मां उसे वस्त्र तो पहिनाने की सोचे जन्म के समय आये थे और जिनका प्रयोग नहीं पाया था तो क्या वे वस्त्र २०-२५ वर्षीय युवक को आ पायेंगे ? नहीं आने पर वस्त्र लाने वालों को भला-बुरा कहे तो यह उसकी ही मूर्खता मानी जायेगी, वस्त्र लाने वालों की नहीं । उसी प्रकार महावीर के वर्द्धमान, वीर, अतिवीर आदि नाम उन्हें उस समय दिये गये थे जब वे नित्य बढ़ रहे थे, सन्मति (मति - ज्ञान ) थे, बालक थे, राजकुमार थे। उन्हीं घटनाओं और नामों को लेकर तीर्थंकर भगवान महावीर को समझना चाहें तो यह हमारी बुद्धि की ही कमी होगी, न कि लिखने वाले आचार्यो की । वे नाम वीरता की चर्चाएं यथासमय सार्थक थीं ।
दर्शन-दिग्दर्शन
तीर्थंकर महावीर के विराट व्यक्तित्व को समझने के लिए हमें उन्हें विरागी - वीतरागी दृष्टिकोण से देखना होगा। वे धर्मक्षेत्र के वीर, अतिवीर और महावीर थे : युद्धक्षेत्र के नहीं। युद्धक्षेत्र और धर्मक्षेत्र में बहुत बड़ा अन्तर है । युद्धक्षेत्र में शत्रु का नाश किया जाता है ओर धर्मक्षेत्र में शत्रुता का । युद्धक्षेत्र में पर को जीता जाता है और धर्मक्षेत्र में स्वयं को । युद्धक्षेत्र में पर को मारा जाता है और धर्मक्षेत्र में अपने विकारों को ।
महावीर की वीरता में दौड़-धूप नहीं, उछल-कूद नहीं, मारकाट नहीं, हाहाकार नहीं; अनन्त शांति है। उनके व्यक्तित्व में वैभव की नहीं, वीतराग-विज्ञान की विराटता है। जब-जब यह कहा जाता है कि महावीर का जीवन घटना प्रधान नहीं है, तब उसका आशय यही होता है कि दुर्घटना प्रधान नहीं है; क्योंकि तीर्थकर के जीवन में आवश्यक शुभ घटनाएं तो पंचकल्याणक ही हैं। वे तो महावीर के जीवन में घटी ही थीं। दुर्घटनाएं घटना कोई अच्छी बात तो है नहीं कि जिनके घंटे बिना जीवन ही न रहे और एक बात यह भी तो है कि दुर्घटनाएं या तो पाप के उदय से घटती हैं या पाप भाव के कारण । जिनके जीवन में न पाप का उदय हो और न पाप भाव हो, तो फिर दुर्घटनाएं कैसे घटेंगी ? अनिष्ट संयोग पाप के उदय के बिना सम्भव नहीं है तथा वैभव और भोगों में उलझाव पाप के सदभाव में घटने वाली घटनाओं में शादी एक ऐसी दुर्घटना है, जिसके घट जाने पर दुर्घटनाओं का कभी न समाप्त होने वाला सिलसिला आरंभ हो जाता है सौभाग्य से महावीर के जीवन में यह दुर्घटना न घट सकी। (दिगम्बर मान्यता) एक कारण यह भी है कि उनका जीवन घटना- प्रधान नहीं है।
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स्वः मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
लोग कहते हैं कि बचपन में किसके साथ क्या नहीं घटना, किसके घुटने नहीं फूटते, किसके दांत नहीं टूटते ? महावीर के साथ भी निश्चित रूप से यह सब कुछ घटा ही होगा, भले ही आचार्यो ने न लिखा हो । पर दुर्घटनाएं बचपन तो आया था, पर बचपना उनमें नहीं था, अतः घुटने फूटने और दांत टूटने का सवाल ही नहीं उठता। वे तो बचपन ही सरल, शांत एवं चिंतनशील व्यक्तित्व के धनी थे । उपद्रव करना उनके स्वभाव में ही न था और बिना उपद्रव के दांत टूटना, घुटने फूटना सम्भव नहीं ।
कुछ लोगों का कहना यह भी है कि न सही बचपन में, पर जवानी तो घटनाओं काही काल है। जवानी में तो कुछ न कुछ घटा ही होगा। पर! जवानी में दुर्घटनाएं उनके साथ घटती हैं, जिन पर जवानी चढ़ती है। महावीर तो जवानी पर चढ़े थे, जवानी उन पर नहीं । जवानी चढ़ने का अर्थ है - यौवन सम्बन्धी विकृतियां उत्पन्न होना और जवानी पर चढ़ने का तात्पर्य शारीरिक सौष्टव का पूर्णता को प्राप्त होना है।
राग सम्बन्धी विकृति भोगों में प्रकट होती है और द्वेष सम्बन्धी विद्रोह में । न वे रागी थे, न द्वेषी; अतः न वे भोगी थे और न ही द्रोही ।
वीतरागी - पथ पर चलने वाले विरागी महावीर को समझने के लिए उनके अन्तर झांकना होगा। उनका वैराग्य देशकाल की परिस्थितियों से उत्पन्न नहीं हुआ था, उसके कारण उनके अन्तरंग में विद्यमान थे। उनका वैराग्य परोपजीवी नहीं था । जो वैराग्य किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होता है, वह क्षणजीवी होता है । परिस्थितियों के बदलते ही उसका समाप्त हो जाना संभव है ।
यदि देश-काल की परिस्थितियां महावीर के अनुकूल होतीं तो क्या वे वैराग्य धारण न करते, गृहस्थी बसाते, राज्य करते ? नहीं, कदापि नहीं। फिर परिस्थितियां उनके प्रतिकूल थीं ही कब ? तीर्थंकर महान पुण्यशाली महापुरुष होते हैं, अतः परिस्थितियों का उनके प्रतिकूल न होना असम्भव नहीं है।
माना कि महावीर का अन्तर विशुद्ध था, अतः घर में कुछ न घटा, पर वन में तो घटा ही होगा ? हां ! हां !! अवश्य घटा था, पर लोक जैसे घटने को घटना मानता है वैसा कुछ नहीं घटा था । राग-द्वेष घट गए थे, तब तो वे वन को गए ही थे। क्या राग-द्वेष का घटना कोई घटना नहीं है ? पर बहिर्मुखी दृष्टिवाले को राग-द्वेष घटने में कुछ घटना-सा नहीं लगता । तिजोरी में से लाख रुपया घट-सा नहीं लगता । तिजोरी में से लाख,
. दो लाख
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दर्शन-दिग्दर्शन
रुपया घट जायें, शरीर में से कुछ खून घट जाये तो इसे घटना नहीं कहा जाता।
वन में ही तो महावीर रागी से वीतरागी बने थे, अल्पज्ञानी से पूर्णज्ञानी बने थे। सर्वज्ञता और तीर्थेकरत्व वन में ही तो पाया था। क्या ये घटनाएं छोटी हैं ? क्या कम हैं ? इनसे बड़ी भी कोई घटना हो सकती है। मानव से भगवान बन जाना कोई छोटी घटना है ? पर जगत्को तो इसमें कोई घटना सी ही नहीं लगती। तोड़-फोड़ की रुचि वाले जगत को तोड़-फोड़ में ही घटना नजर आती है, अन्तर में शांति से जो कुछ घट जाय, उसे वह घटना-सा नहीं लगता। अन्तर में जो कुछ प्रतिपल घट रहा है वह तो उसे दिखाई नहीं देता,बाहर में कुछ हलचल हो तभी कुछ घटा-सा लगता है।
जब तक देवांगनाएं लुभाने को न आवें और उनके लुभाने पर भी कोई महापुरुष न डिगे, तब तक हमें उसकी विरागता में शंका बनी रहती है। जब तक कोई पत्थर न बरसाए, उपद्रव न करे और उपद्रव में भी कोई महात्मा शांत न बना रहे, तब तक हमें उसकी वीत द्वेषता समझ में नहीं आती।
यदि प्रबल पुण्योदय से किसी महात्मा के इस प्रकार के प्रतिकूल संयोग न मिलें तो क्या वह वीतरागी और वीतद्वेषी नहीं बन सकता? क्या वीतरागी और वीतद्वेषी बनने के लिए देवांगनाओं का डिगना और राक्षसों का उपद्रव करना आवश्यक है ? क्या वीतरागता इन घटनाओं के बिना प्राप्त और संप्रेषित नहीं की जा सकती? क्या मुझे क्षमाशील होने के लिए सामने वालों का मुझे सताना, गाली देना जरूरी है ? क्या उनके सताए बिना मैं शांत नहीं हो सकता ? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो बाह्य घटनाओं की कमी के कारण महावीर के चरित्र में रूखापन मानने वालों और चिन्तित होने वालों के लिए विचारणीय है।
___ महावीर के साथ वन में क्या घटा था ? वन में जाने से पूर्व ही महावीर बहुत कुछ तो वीतरागी हो ही गये थे, रहा-सहा राग भी तोड़, पूर्ण वीतरागी बनने चल पड़े थे। उन्होंने सब कुछ छोड़ा था, कुछ ओढ़ा न था। वे साधु बने नहीं, हो गये थे। साधु बनने में वेष पलटना पड़ता है, साधु होने में स्वयं ही पलट जाता है।
वस्तुतः साधु की कोई डेस नहीं है, सब डेसों का त्याग ही साधु का वेष है। डेस बदलने से साधुता नहीं आती, साधुता आने पर डेस छूट जाती है।
साधुता बंधन नहीं है, उसमें सर्व बंधनों की अस्वीकृति है। साधु का कोई वेष नहीं होता, नग्नता कोई वेष नहीं, वेष साज-श्रृंगार है, साधु को सजने-संवरने की फुर्सत ही
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कहां है ? उसका सजने का भाव ही चला गया है। सजने में 'मैं दूसरों को कैसा लगता हूं ?' का भाव प्रमुख रहता है। साधु को दूसरों से प्रयोजन ही नहीं है, वह जैसा है - वैसा ही है।
__महावीर मुनिराज वर्द्धमान नगर छोड़ बन में चले गये। पर वे वन में भी कहां रहे ? वे तो आत्मवासी हैं। न उन्हें नगर से लगाव है, न वन से ; वे तो दोनों से अलग हो गये हैं, उनका तो पर से अलगाव ही अलगाव है।
रागी वन में जायेगा तो कुटिया बनायेगा, वहां भी धर बनायेगा, ग्राम और नगर बसायेगा, वहां भी घर बसायेगा, ग्राम और नगर बसायेगा ; भले ही उसका नाम कुछ भी हो, है तो वह घर ही। रागी वन में भी मंदिर के नाम पर महल बनायेगा, महलों में भी उपवन बनायेगा। वह वन में रहकर भी महलों को छोड़ेगा नहीं, महल में रहकर भी वन को छोड़ेगा नहीं।
उनका चित्त जगत के प्रति सजग न होकर आत्मनिष्ठ हो गया था। देश-काल की परिस्थितियों के कारण उन्होंने अपनी वासनाओं का दमन नहीं किया था। उन्हें दमन की आवश्यकता भी न थी, क्योंकि वासनाएं स्वयं अस्त हो चुकी थीं।
उन्होंने सर्वथा मौन धारण कर लिया था, उनको बोलने का भाव भी न रहा था। वाणी पर से जोड़ती है, उन्हें पर से जुड़ना ही न था। वाणी विचारों की वाहक है, वह विचारों का आदान-प्रदान करने में निमित्त है, वह समझने-समझने के काम आती है ; उन्हें किसी को समझाने का राग भी न रहा था, अतः वाणी का क्या प्रयोजन। वाणी उन्हें प्राप्त थी पर वाणी की उन्हें आवश्यकता ही न थी।
एक अघट घटना महावीर के जीवन में अवश्य घटी थी। आज से २५०२ वर्ष पहले दीपावली के दिन जब वे घट (दह) से अलग हो गये थे, अघट हो गये थे, घट घट के वासी होकर भी घटवासी भी न रहे थे, गृहवासी और वनवासी तो बहुत दूर की बात है, अन्तिम घट (दह) को भी त्याग मुक्त हो गये थे।
इस प्रकार जगत से सर्वथा अलिप्त, सम्पूर्णतः आत्मनिष्ठ महावीर के जीवन को समझने के लिए उनके अन्तर में झांकना होगा कि उनके अन्तर में क्या कुछ घटा? उन्हें बाहरी घटनाओं से नापना, बाहरी घटनाओं को बांधना संभव नहीं है। यदि हमने उनके ऊपर अघट-घटनाओं को थोपने की कोशिश की तो वास्तविक महावीर तिरोहित हो जावेंगे, वे हमारी पकड़ से बाहर हो जावेंगे ; और जो महावीर हमारे हाथ लगेंगे, वे वास्तविक
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________________ / दर्शन-दिग्दर्शन महावीर न होंगे, तेरी-मेरी कल्पना के महावीर होंगे। यदि हमें वास्तविक महावीर चाहिये तो उन्हें कल्पनाओं के घेरों में न घेरिये, उन्हें समझने का यत्न कीजिए, अपनी विकृत कल्पनाओं को उन पर थोपने की अनाधिकार चेष्टा मत कीजिए / 2010_03