Book Title: Mahattara Shree Mrugavatishreeji
Author(s): Ramanlal C Shah and Others
Publisher: Vallabhsuri Smarak Nidhi

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Page 192
________________ श्री महत्तरा मृगावती जी की याद . स्व. प्रो. राम जैन, दिल्ली श्री मृगावती जी प्रवर्तिनी, शुभ वन्दना सौ बार हो। चारित्र का सत्कार हो, अति निकट भव निस्तार हो।। चारित्र-धनु और ज्ञान-शर ले धर्म-रथ आसीन थी। थी शील पुत्री, शील शिष्या, शील राज्याधीन थी। थी कल्पतरु की कल्पछाया प्राप्त कर शीतल बनी। ले भक्ति-वारि समुद्र का, वे स्फटिक सम निर्मल बनी ।। आतमपुरी के इन्द्र का वरदान उनको था मिला। था कांगड़ा के भक्ति-सर में यश-कमल उनका खिला ।। गुरुदेव धर्म-महारथी, स्यन्दन बना निर्वाण का। श्री संघ है शुभ सारथी, है अस्त्र आगमज्ञान का ।। इस तरह से धर्मरथ का है प्रवर्तन हो गया। प्रवर्तिनी का पद तुम्हें गुरुदेव द्वारा मिल गया ।। आज्ञा हुई गुरुराज की, स्मारक को सब अर्पण किया। क्या क्या करिश्मे कर दिखाये, भीष्म जैसा प्रण किया । इतिहास में स्वर्णक्षरों में जब लिखा वह जायेगा। एक साध्वी एक मानवी की शक्ति को दर्शायेगा ।। यह कालधर्म भी आपका एक चमत्कार बना रहा। प्रभु पार्श्व श्री शंखेश्वर, साक्षात्कार बना रहा ।। तेरी समाधी जिसने देखी, सबने अभिनन्दन किया। जीवन तुम्हारा धन्य था, विष को सदा चन्दन किया ।। अच्छा, वियोगी आत्मा! स्वीकार लो बस वन्दना । तेरी तपस्या बन सकेगी. शीघ्र भव-भय-भंजना ।। अपनी सुशिष्या सुव्रता पर, · दया करना सर्वदा । वह शक्ति देना महत्तरा! वह भी बने महती सदा ।। મહત્તરા શ્રી મૃગાવતીશ્રીજી ૧૬૫

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