Book Title: Mahajan Sangh Ka Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpamala

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Page 23
________________ ( २३ ) झते थे, केवल अपने अपने शिष्य समुदाय को वाचना देने को या अपनी अपनी गुरु परम्परा व्यवस्थित रहने की गर्ज से ही वे लोग गच्छों को उपादेय समझते थे । कल्प सूत्र की स्थविरावली से पता चलता है कि आर्य भद्रबाहु एवं सुहस्तीसूरि के समय से ही कई गण ( गच्छ ) एवं शाखाएं निकलनी शुरू तो हो गई थीं पर उनके अन्दर सिद्धान्त या क्रिया-भेद नहीं था और यह प्रवृत्ति प्रायः विक्रम की दसवीं, ग्यारहवीं शताब्दी तक ठीक चलती रही और जहाँ तक आचार्यों में किसी बात का विशेष मत-भेद नहीं था तथा आपसी क्लेश कुसं पादि का भी प्रायः अभाव ही था, वहाँ तक महाजन संघ का भी प्रति दिन खूब उदय होता ही गया । किन्तु कलिकाल के कुटिल प्रभाव से ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी में उन गच्छों की उत्पत्ति हुई जो आपस में सिद्धान्त भेद, क्रिया भेद आदि डाल कर एक दूसरे को मिध्यात्वी और निन्हव शब्दों से संबोधित करने लगे । बस उसी दिन से संघ के दिन फिर गए और उन गच्छनायकों को ममत्व एवं स्वार्थ ने उनका मूल ध्येय भुला दिया । इससे वे लोग अपनी अपनी वाड़ा बन्धी में ही अपनी उन्नति एवं कल्याण समझने लगे । दूसरा एक और भी कारण हुआ कि चैत्यवासियों ने मंदिरों के निर्वाह के लिए एक ऐसी योजना तैयार की थी कि जिससे श्रावकों की मन्दिर एवं धर्म पर अटूट श्रद्धा बनी रहे और मन्दिरों का भी काम सुचारु रूप से चलता रहे । वह योजना यह थी कि उन चैत्यवासी आचार्यों ने अपने अपने मंदिर के गोष्ठी ( सभासद् ) बना दिये थे, इसमें विशेषतः वे ही लोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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