Book Title: Madhyakalin Maru Gurjar Chitrakala ke Prachin Praman
Author(s): Umakant P Shah
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 3
________________ उत्कीर्ण की होगी क्योंकि मालव के राजाने यह शासन शासन में दिखाई देती गरुडाकृतिकी कला गुजरात और - आकृति यहाँ चित्र ३ रूपसे पेश की है । सवाचश्म जैसी लगती है चित्र ३ की गरुडाकृति पूरी एकचश्म नहीं है। और परली आँख ही 'दिखाई देती है। गाल ( cheek ) नहीं किन्तु उसकी और मुखकी सीमारेखासे ऐसी बाहर वह परली आँख नहीं है जितनी पिछले समय के माह गुर्जर चित्रोंमें मिलती है। अतः हम यह कह सकते हैं कि ई०स० ९४८ के आसपास मुखकी सीमारेखाके बाहर परली आंस लाना अगर शुरू भी हुआ हो, तो फिर भी इतना प्रच लिद, ना सर्वमान्य नहीं हुआ था। वास्तवमें जहाँ तक परली आँखको सीमारेखासे बाहर दिखाने की बात है वहाँ तक तो चित्र १ में बताया हुआ ई०स० ९७४ में खुदा हुआ गरुड और चित्र ३ के गरुडमें कोई ज्यादा भेद नहीं है । किन्तु शरीर रचना और मुखाकृति आदिमें सविशेष भेद है। बालक जैसी आकृति मनोश है, सजीव तो है ही चित्र १ के गरुडकी आकृति में नाक ज्यादा लम्बा और तीक्ष्ण अन्त ( Printed end ) वाला है । चित्र वाले गरुड की angularites बढ़ गई है, गुजरातमें अपने कैम्प मेंसे निकाला था। अतः इस मालवा दोनों में प्रचलित होनेका सम्भव है । यह चित्र ४ में पेश किया हुआ ताम्रपत्र वि०सं० २०२६ ९६९ ई०० में परमार सीयक द्वारा दिया हुआ दानपत्रका है।" इस आकृतिके मिलने से स्पष्ट हो गया है कि ई०स० ९६९-९७० में परली आँखको मुलवासे बाहर दिखाना शुरू हो गया था, प्रचलित भी हो गया था और राजमुद्रामै भो यह शैली स्वीकृत हो गई थी। अतः इस शैलीका आविष्कार ई०स० ९५० और ९७० के बीचमें होकर इसका सर्वमान्य स्वीकार प्रचार हो चुका था ऐसा माननेमें हमें कोई बाधा नहीं है । इस दानपत्रका यह पत्र अभी अहमदाबाद के श्रीलालभाई दलपत भाई भारतीय संस्कृति विद्यालय में संगृहीत है । इसी शैलीका प्रचार और विकास हमें एक और दानपत्रमें मिला है। यह है भोजदेवका बांसवाडाका दानपत्र जो वि०सं० १०७६ ई०स० १०१९-२० में दिया गया। वह पत्रकी गरुडमुद्राको चित्र नं० ५ में यहाँ पेश किया है । - = एक और दानपत्र में भी इस मारु-गुर्जर शैलीकी गरुडाकृति मिली है । वह है भोपाल से मिला हुआ महाकुमार हरिश्चन्द्रका दानपत्र जिसके सम्पादक डॉ० एन० पी० चक्रवर्तीने उसको करीब ई०स० ११५७ में दिया गया माना है। इसका समय ज्ञातांगको ताड़पत्रीय प्रतिमें चित्रित सरस्वतीका समय जैसा होता है। आकृति यहाँ पर चित्र ६ में पेश की हैं। १. डी०बी० डीसकलकर, एन ऑड प्लेट ऑफ परमार सीयक, एपि० इन्डि०, जिल्द १९, पृ० १७७ से आगे और प्लेट । २ २. प्रो० इ० हुलूटझ, बाँसवारा प्लेट्स् ऑफ भोजदेव, एपि० इन्डि०, वॉ० ११, पृ० १०१ से आगे और प्लेट । Jain Education International ३. एन०पी० चक्रवर्ती, भोपाल प्लेट्स् ऑफ महाकुमार हरिचन्द्रदेव, एपि० इन्डि०, वॉ० २४, पृ० २२५ से आगे और प्लेट् । For Private & Personal Use Only इतिहास और पुरातत्त्व : ९६ www.jainelibrary.org

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