Book Title: Madhyakalin Maru Gurjar Chitrakala ke Prachin Praman
Author(s): Umakant P Shah
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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________________ दार ( Penrfed ) नाक आदि विशेषतायें स्पष्ट रूपसे विकसित हैं। अतः ई०स० ८वीं सदी और ११वीं सदीके बीच इस चित्रशैलीका प्रादुर्भाव हो चुका था यह निश्चित है। किन्तु, ग्रन्थस्थ चित्रकलाके इतने प्राचीन अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। इस शैलीके अन्य प्राचीन प्रमाण, खासतौर पर जिसका समय निश्चित है ऐसे प्रमाण की खोजमें डॉ० मंजूलाल मजमूंदारने एक नयी दिशाकी ओर हमारी दृष्टि खींची है। प्राचीन ताम्रपत्रीय दानपत्रोंराज्यशासनोंमें अन्तमें कभी-कभी दान देनेवाले राजाकी राजमुद्राका चिह्न रेखाकृति में उत्कीर्ण रूपसे मिलता है। ऐसे उदाहरणोंमें हमें रंगमिलावट और चित्राकृति वैविध्य नहीं मिलता, किन्तु रेखांकनको परिपाटी, उस शैलोकी रेखांकन विशेषताका प्रमाण मिल जाता है। मारुगुर्जर शैलीकी जो विशेषतायें हैं उनमें नोकदार नाक, अर्द्धसन्मुख मुखाकृतिमें दूसरी आँखको भी दिखाना ( farhor eye extended in space ) और मखकी और शरीरकी आकृतिमें विशेषतः कोणांकन ( angularitces ) दिखलाना, आदि हमें ऐसे ताम्रपत्रोंके रेखांकनोंमें दृष्टिगोचर हो सकते हैं। इस तरह डॉ. मजमूंदारने दो प्राचीन शासनोंकी ओर निर्देश किया है, जिनमें एक है परमार राजा वाक्पति राजका संवत् १०३१ = ई०स० ९७४ में उत्कीर्ण दान शासन जो उज्जयनी नगरीसे दिया गया है और दूसरा है परमार भोजराजका शासन जो संवत् १.७८ = ई०स० १०२१ में धारा नगरीसे दिया गया है जिसमें नागह्रदको पश्चिम पथकमें वीराणक गाँव दानमें दिया है । इन दोनोंमें परमारोंकी राजमुद्राका चिह्न गरुडाकृति उत्कीर्ण है, और गरुडके हाथमें सर्प है। गरुडको वेगसे आकाशमें विचरता हुआ, मनुष्याकृति और सपक्ष दिखाया है। यहाँ यह दोनों आकृति चित्र १ और चित्र २ में पेश की हैं। इन चित्रोंसे यह स्पष्ट है कि यह चित्रकला दशवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मालव प्रदेश और परमारोंके आधीन प्रदेश में प्रचलित हो चुकी थी। इस दृष्टिसे मैंने उत्कीर्ण दानपत्रों की ओर खोज करनेका प्रयत्न किया जिनमें ऐसे राजचिह्न उत्कीर्ण किये हों। इससे अब हम निश्चित रूपसे कह सकते हैं कि ई०स० ९४८ में ( अत: दशवीं शताब्दीके मध्यकालमें ) इस शैलीका आविष्कार और प्रचार हो चुका था। संभवतः दशवीं शताब्दीके सारे पूर्वार्द्ध में इस शैलीका होना माना जा सकता है क्योंकि राजमुद्रामें इसका आविष्कार होना तब ही हो सकता है जब उसको कलाकारों और कलापरीक्षकोंने अपनाया हो । साबारकांठा जिला ( उत्तर गुजरात ) हरसोला नामक प्राचीन नगरके किसी ब्राह्मणके पाससे मिला हुआ यह शासन हरसोला प्लेट्स ऑफ सीयक इस नामसे रायबहादुर के०एन० दीक्षितजीने और श्री०डी०बी० डीसकालकरने प्रसिद्ध किया था. वह शासन सीयकने महीनदीके तट पर अपने कॅम्पमेंसे निकाला था और दान में इसी प्रदेशमें मोहडवासक ( हालका मोडासा ) के पासके गाँव दिये गये हैं। इस शासनमें उत्कीर्ण गरुडाकृति मालव या गुजरातके किसी कांस्यकारने १. मोतीचन्द्र, वही, पृ० ११-१२ और चित्र नं० ४ । २. डॉ० एम०आर० मजमुंदार, गुजरात-इट्स आर्ट-हॅरिटेइज, प्लेट १ और प्लेट १३ । इन दोनों दानपत्रकी मूलप्रसिद्धिके लिए देखो, एन.जे. कीर्तने, श्रीमालव इन्स्क्रीप्शन्स, इन्डीअन एन्टीक्वेरी, वॉ० ६, प्र० ४९-५४ और प्लेटस्, यहाँ पर दिए हए चित्र नं० १-२ इसी चित्रोंकी कॉपीसे साभार उद्धृत है। ३. देखो, के०एन० दीक्षित और डी०बी० डीसकालकर, दुहरसोला प्लेट्स ऑफ परमार सीयक, एपिग्राफिया इन्डिका, जिल्द १९, पृ० २३६ से आगे, और प्लेट । ८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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