Book Title: Leshya Ek Vishleshan Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 4
________________ ४६४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड •ummmuner -------+-+++++++ +mmmmmmm..................... परिणाम उनसे प्रभावित होते हैं। दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध है। निमित्त को द्रव्यलेश्या और मन के परिणाम को भावलेश्या कहा है। जो पुद्गल निमित्त बनते हैं उनमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श सभी होते हैं तथापि उनका नामकरण वर्ण के आधार पर किया गया है । संभव है गंध, रस और स्पर्श की अपेक्षा वर्ण मानव को अधिक प्रभावित करता हो । कृष्ण, नील और कापोत ये तीन रंग अशुद्ध हैं और इन रंगों से प्रभावित होने वाली लेश्याएँ भी अशुभ मानी गयी हैं और उन्हें अधर्म-लेश्याएं कहा गया है। तेजस्, पद्य और शुक्ल ये तीन वर्ण शुभ है और उनसे प्रभावित होने वाली लेश्याएँ भी शुभ हैं । इसलिए तीन लेश्याओं को धर्म-लेश्या कहा हैं । २५ अशुद्धि और शुद्धि की दृष्टि से छह लेश्याओं का वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है(१) कृष्णलेश्या अशुद्धतम क्लिष्टतम - (२) नीललेश्या अशुद्धतर क्लिष्टतर (३) कापोतलेश्या अशुद्ध क्लिष्ट (४) तेजस्लेश्या शुद्ध अक्लिष्ट (५) पद्मलेश्या शुद्धतर अक्लिष्टतर (६) शुक्ललेश्या शुद्धतम अक्लिष्टतम प्रस्तुत अशुद्धि और शुद्धि का आधार केवल निमित्त ही नहीं अपितु निमित्त और उपादान दोनों हैं । अशुद्धि का उपादान कषाय की तीव्रता है और उसके निमित्त कृष्ण, नील, कापोत रंगवाले पुद्गल है और शुद्धि का उपादान कषाय की मन्दता है और उसके निमित्त रक्त, पीत और श्वेत रंगवाले पुद्गल हैं। उत्तराध्ययन में लेश्या का नाम, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयु इन ग्यारह प्रकार से लेश्या पर चिन्तन किया है ।२६ आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थराजवातिक में लेश्या पर (१) निर्देश, (२) वर्ण, (३) परिणाम, (४) संक्रम, (५) कर्म, (६) लक्षण, (७) गति, (८) स्वामित्व, (8) साधना, (१०) संख्या, (११) क्षेत्र (१२), स्पर्शन (१३), काल, (१४) अन्तर, (१५) भाव, (१६) अल्प-बहुत्व इन सोलह प्रकारों से चिन्तन किया है। जितने भी स्थूल परमाणु स्कन्ध हैं वे सभी प्रकार के रंगों और उपरंगों वाले होते हैं। मानव का शरीर स्थूल स्कन्ध वाला है । अतः उसमें सभी रंग हैं। रंग होने से वह बाह्य रंगों से प्रभावित होता है और उसका प्रभाव मानव के मानस पर भी पड़ता है। एतदर्थ ही भगवान महावीर ने सभी प्राणियों के प्रभाव व शक्ति की दृष्टि से शरीर और विचारों को छह भागों में विभक्त किया है और वही लेश्या है। डा. हर्मन जेकोबी ने लिखा है-जैनों के लेश्या के सिद्धान्त में तथा गोशालक के मानवों को छह विभागों में विभक्त करने वाले सिद्धान्त में समानता है। इस बात को सर्वप्रथम प्रोफेसर ल्यूमेन ने पकड़ा पर इस सम्बन्ध में मेरा विश्वास है जैनों ने यह सिद्धान्त आजीविकों से लिया और उसे परिवर्तित कर अपने सिद्धान्तों के साथ समन्वित कर दिया ।२८ प्रो० ल्यूमेन तथा डा. हर्मन जेकोबी ने मानवों का छ: प्रकार का विभाजन गोशालक द्वारा माना है, पर अंगुत्तरनिकाय से स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत विभाजन गोशालक द्वारा नहीं अपितु पूरणकश्यप के द्वारा किया गया था । दीघनिकाय में छह तीर्थंकरों का उल्लेख है, उनमें पूरणकश्यप भी एक हैं जिन्होंने रंगों के आधार पर छह अभिजातियाँ निश्चित की थीं। वे इस प्रकार हैं (१) कृष्णाभिजाति-ऋर, कर्म करनेवाले सौकरिक, शाकुनिक प्रभृति जीवों का समूह । (२) नीलाभिजाति-बौद्ध श्रमण और कुछ अन्य कर्मवादी, क्रियावादी भिक्षुओं का समूह । (३) लोहिताभिजाति-एक शाटक निर्ग्रन्थों का समूह । (४) हरिद्रामिजाति-श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र । (५) शुक्लाभिजाति-आजीवक श्रमण-श्रमणियों का समूह । (६) परम शुक्लाभिजाति-आजीवक आचार्य, नन्द, वत्स, कृष, सांकृत्य, मस्करी गोशालक प्रभृति का समूह ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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