Book Title: Lekhratnakar Paddhati
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 3
________________ फेब्रुआरी 2011 सस्नेहं साञ्जसं योग्यं प्रीतिपोत्कार एव च / अभिवन्दे शिलामं च नमोऽस्तु नियोजयेत् // 13 // नारायणायुर्दीर्घायु-ब्रह्मायुर्धर्मलाभकः / धर्मवृद्धिस्तथाऽखण्ड-प्रतापादि नियोजयेत् // 14 // अक्षयाऽजरामरताऽविधवाऽथ सुतवत्यपि / शुभराज्यं च भरित-पूरितं कुशलोदयं // 15 // शिवायुरेवमादीना-माशीर्वादपुरःसरम् / / येषां यस्ते न देया (?) प्रयुज्यन्ते ततः क्रिया // 16 / / लेखयोग्या प्रकाश्यन्ते क्रिया पश्चात् प्रयुज्यते / निर्मंत्रय त्यक्त्वा मंत्रेय ते च कथयत्यति // 17 // (?) लेखरत्नाकरादस्माद् भावरत्नानि उद्धरेत् / गृहीत्वा रचयेल्लेख-हारानवद्यवजितान् // 18 // एकपट्टे स्वस्तिहीने रजोहीने द्विगुण्ठिते / त्रिभिः कारंखकैर्लेखैः नास्ति सिद्धिं (द्धिः) करार्पिते // 19 // गुरोर्वचनमाश्रित्य धीमतां स्मृतिहेतवे / अज्ञानबोधनार्थाय वक्ष्येऽहं लेखपद्धतिम् // 20 // चतुःसागरपर्यन्ते समस्ते क्षितिमण्डले / नास्ति देशो विना राजा लेखकं च विना नृपम् // 21 // प्रज्ञाहीनाश्च ये मूढा अदक्षा लेखकर्मणि / तेषामेवोपदेशार्थं पञ्चाशद्विधयः कृताः // 22 // व्यापारा बहवश्चार्था राजमूले व्यवस्थिताः / लेखकैस्तु विचार्यन्ते स्वामिचित्तानुवृत्ति(वर्ति)भिः // 23 // इति लेख रत्नाकर पद्धतिः // लेखनी सर्वकार्येषु व्यापारेषु सदामुखी / नवपर्वसमायुक्ता अधिकस्याधिकं फलम् // 1 // सन्मुखी हरते प्राणा-नधोमुखी धनक्षयः / वामा च हरते आयुः दक्षिणा सुखसम्पदः // 2 // 4. ०मादाय प्रतौ पाठां. टि. / 5. मतिमाश्रित्य धीमताम् प्रतौ पाठां. टि. / 6. भूप प्रतौ पाठां. टि. /

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