Book Title: Lala Lajpatray Ane Jain Dharma
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 112
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिखा । यदि उनके अनुभव में कुछ जैन धर्मावलम्बियों की निर्दयता की बातें आई हैं तो उनके लिये वे मनुष्य ही अपराधी हैं न कि जैन धर्म का मुख्य सिद्धांत दया पालन है । यदि कोई जैन इस सिद्धांत के अनुसार नहीं चलता है और निर्दयता का बर्ताव करता है तो वह जैनों की दृष्टि में भी ऐसा ही पतित और भ्रष्ट है जैसा कि अन्य धर्मावलम्बियों की दृष्टि में जैन धर्म कभी उसे अच्छा न कहेगा। अलबत्ता यदि जैनों के आचार विचार या उनकी कोई रीति रवाज ऐसी हो जिससे निर्दयता प्रकट होती हो तो उसका खंडन या मंडन जानने पर ही हो सकता है। हम तो जहां तक जानते हैं उनमें कोई ऐसी रीति रिवाज है ही नहीं । वे तो अपने देवताओं के सामने पशुओं का बलिदान भी नहीं करते हैं जो बहुत से हिन्दू करते हैं। जिस कार्य में हिंसा और निर्दयता हो वह कार्य उनके मत में सर्वथा त्याज्य है। अन्य धर्मावलम्बियों के मुकाबिले में जैन निर्दय और क्रूर कभी साबित नहीं हो सकते हैं। यदि लाला साहब यह लिखते कि जैसे जैन साधु उच्च श्रेणी के त्यागी सदाचारी और उदार हृदय हैं और इन कारणों से अन्य धर्मों के साधुओं से बहुत बढ़े चढ़े हैं और उनकी उत्कर्षता स्वयं सिद्ध है वैसे जैन गृहस्थ अन्य धर्मों के गृहस्थों से सदाचार के विषय में कुछ विशेषता और उत्कर्षता नहीं रखते हैं तो उनका लिखना किमी मात्रा में उपयुक्त होता । खेद है कि जैन गृहस्थ अपने साधुओं के उच्च चरित्र देखते हुए और उनके शुद्ध धार्मिक व्याख्यान निरंतर सुनते हुए भी अपने चरित्रों का ऐसा उच्च श्रेणीका न बना पाये हैं कि जिस से यह कहा जाय कि वे अन्य धर्मावलम्बियों के मुकाबिले में सदाचार के विषय में बड़े चढ़े है । . लाला साहब की निजको यह सम्मति कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म का सामान्य प्रभाव भारत के राजनैतिक अधःपात का एक कारण हुआ है. कहां तक ऐतिहासिक दृष्टि से ठीक है हम नहीं कह सकते है। यदि लाला साहब कोई For Private And Personal Use Only

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