Book Title: Lala Lajpatray Ane Jain Dharma
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 111
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को देखते हुए हम यह नहीं कह सकते हैं कि जैन स्पष्ट रूप से ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार करते हैं । ये प्रत्येक मनुष्य को परमेश्वर नहीं मानते बल्कि ये सिद्धात्माओं को जी केवल ज्ञान स्वरूप ही हैं और संसार में तीर्थंकर पदवी तक पहुंच गए है उसकुं ईश्वर या परमेश्वर कहते हैं । ___ यह कहना है कि जैन धर्म के सिद्धांत योरुपीय दार्शकि कमिटि के मत से मिलते हैं, जैन धर्म के साथ श्रन्याय करना है। कमिटी घोर नास्तिक है । वह न परमेश्वर को मानती है और न आत्मा या जीव को । उसका मत भौतिक विज्ञान की भित्ति पर अपलम्बित है। वह आत्मा या जीव को प्रकृति का ही एक सूक्ष्म विकार समझता है उसने उसी मनुष्यकी सामाजिक लाभ की दृष्टि से अच्छा समझा है जो समाज का अधिक हित कर सके और सर्व प्रिय हो। वही श्रेष्ठ और उत्तम पुरुष है। कमिटि के सिद्धांतों में अध्यात्मज्ञान की झलक भी नहीं है । जैन से अपने तीर्थंकरों को इस दृष्टि से नहीं देखते हैं। उनके विचारों के अनुसार ऐसा मनुष्य जिसे कमिटि आदर्शरूप मानती है तीर्थकर वही है जिन्होंने अपने सब कर्म बंधन तोड़ डाले हैं, जिन्हें केवल ज्ञान हो गया है, जिनकी आत्मा सर्वदा दोष रहित हो कर अंतिम विकासावस्था को प्राप्त हो गई है । हमारे ख्याल से जैन मत और कमिटि के पोजिटिविस्म में बड़ा अंतर ही नहीं है बल्कि ये दोनों भिन्न २ है । कोई अंगरेज ऐसा लिखे तो आश्चर्य नहीं पर किसी आर्य विद्वान् को ऐसा मेल मिलाना अनुचित है। आगे चलकर लाला साहब ने लिखा है कि जैन जनता क्षुद्र जीवों की तो रक्षा करते है परन्तु मनुष्यों के साथ उनका बर्ताव बड़ा ही निर्दयता का होता है। यदि इस पिछले पाक्य के समर्थन में विद्वान् लेखक जैनोंके वर्तावके विषय में कोई दो चार उदाहरण दे देते तो बात कुछ समझ में आजाती । आश्चर्य है कि अनुभवी लेखक ने ऐसा क्यों For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 109 110 111 112 113 114 115