________________ परिशिष्ट ] लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् [ 345 निकट स्थित है। दशार्ण पर्वतसे पूर्वाचार्योंका आशय दशार्ण नदीके निकट अवस्थित "कोटिपहाड़" पर्वतमालासे रहा है, जो आकारकी दृष्टिसे "जोअणपिहुला" अर्थात् एक योजन विस्तार रखती है। दशार्ण नदी, भोपालके विरमऊ पहाड़ोंसे निकलकर टीकमगढ़, छतरपुर जिलोंकी सीमारेखा बनाती हुई, झाँसी जिलेके चन्दवारी गाँवके निकट बेतवामें गिर जाती है। इस नदीके दक्षिणमें विन्ध्याचलकी भांडेर श्रेणियाँ तथा पूर्वमें पन्ना पर्वतश्रेणियाँ हैं। नदीके पश्चिमी भागमें-दक्षिणसे उत्तरकी ओर अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र एकान्तिक पहाड़ हैं, जिनकी एक अन्तरङ्ग-शृङ्खला मदनपुरसे अहार क्षेत्र तक चली गई है। किसी अन्य नामके अभावमें, इस पर्वत श्रेणीको ही पूर्बाचार्योने दशार्ण पर्वत कहा है, ठीक वैसे ही जैसे महाभारतकालमें " दशार्ण" के आधार पर इस क्षेत्र की एक संशा हमें दशार्णा प्राप्त होती है। इसी दशार्ण पर्वत-श्रेणी अथवा "कोटिपहाड़" पर प्राचीन कोटिशिला अवस्थित रही होगी। - कोटिपहाड़से कोटिशिलाके समीकरणके कतिपय अवान्तर प्रमाण हमें उपलब्ध होते हैं। आदिपुराणमें चक्रवर्ती भरतकी सेनाओं द्वारा तैरश्चिक, वैडूर्य और कूटाद्रिका उल्लंघन कर पारियात्र देशको प्राप्त करनेका उल्लेख है। दशार्णके पर्वतीय क्षेत्रकी "परियात्र" संज्ञा हमें मध्ययुगमें प्राप्त होती है पद्मनन्दिका वारानगर इसी परियात्रदेशमें अवस्थित था। वारानगरको वर्तमान बड़ागाँवसे समीकृत किया गया है। परियात्र अथवा दशार्णके इसी पर्वतीय क्षेत्रको आदिपुराणकारने कूटाद्रि कहा है, जो आज भी कूटाद्रि अथवा कोटि पहाड़के नामसे विख्यात है। बोधप्राभृतकी टीकामें आचार्य श्रुतसागरने द्रोणीगिरि-कुन्थूगिरिके निकट "कोटिशिलागिरि का उल्लेख किया है तथा 'तीर्थाटनचन्द्रिका में यह स्थान 'सिद्धाद्रिकूटक' कहा गया है। द्रोणीगिरि निःसन्देह वर्तमान द्रोणगिरि सिद्धक्षेत्र है, जो कोटि पहाड़ अथवा कोटिशिलागिरिके निकट अवस्थित है। संस्कृत निर्वाणभक्तिके आचार्यने 'विन्ध्ये 'पद द्वारा इन तीर्थोकी वन्दना की है। आचार्य मदनकीर्तिने कहा है कि विन्ध्य पर्वतके वे इन्द्रपूजित जिनभवन आज भी सम्यग्दृष्टिजनोंको प्रत्यक्षकी भाँति प्रतिभासित होते हैं। * अंततः कोटि पहाड़ पर 'टाठीबेर'की गरिमापूर्ण उपस्थितिका रहस्योद्घाटन आवश्यक है। 'टाठी' शब्द बुन्देलीमें पात्र या बर्तनका पर्याय है तथा 'बेर' संज्ञा एक वृक्ष तथा उसके पात्र विशेषको सूचित करती है / लोक-व्युत्पत्तिके अनुसार 'टाठीबेर' वह स्थल है जहाँ पात्र अथवा बर्तनरूपी पात्र देनेवाला वृक्ष अवस्थित है। आज इस स्थल पर एक भग्न बावड़ी है, जिसके सम्बन्धमें यह लोकविश्वास जीवित है कि विवाहादिके समय वह अपने भक्तोंको मनवांछित बर्तन या भाजन उपलब्ध कराती है। इसीलिये स्थानीय परम्परामें ल. त्रि. 44