Book Title: Kyo hai Atikraman ka Atank Author(s): Shankarlal Mehta Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 2
________________ स्वः मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ मुंह तो सुरसा की तरह फैला हुआ। एक ओर वन सम्पदा का अतिक्रमण वनों पर आक्रमण है। उपयोग का अतिक्रमण कम भयावह नहीं होता। पेड़ों को बचाने के आंदोलन चलते हैं। किंतु वन सम्पदा पर निर्भर आदिवासी अपनी रोजी-रोटी के लिए वन सम्पदा के उपयोग की छूट भी चाहते हैं। वनों का सिकुड़ना वन्य-जीवों के लिए भी समस्या बन गया है। उनका विचरण क्षेत्र अपर्याप्त हो गया है। चीते गन्ने के खेतों में छिपकर रहने लगे है। गोचर भूमि पर अतिक्रमण के कारण गायों और अन्य पशुओं को घास नहीं मिल पाती। वृक्षों की अल्पता अकाल और बाढ़ का निमित्त बनती है। प्रकृति प्रदत्त अन्य संसाधनों के उपयोग ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। पर्याप्त ऊर्जा उत्पादन नहीं हो रहा है। हो रहा है उसमें भी बहुत चोरी से उपयोग में लेते हैं। कोयले की खुदाई ने धनबाद जिले की सारी धरती खोखली बना दी है। पानी के मामले में चेतावनी है कि भारत के बहुत बड़े भाग में पीने का पानी उपलब्ध नहीं होगा। भूगर्भीय जल का स्तर छ: मीटर तक गिर गया है। सरकार कुओं के अधिग्रहण तक का सोच रही है। ओजोन की छतरी में छेद से तापमान बढ़ रहा है। प्राणी जगत में मनुष्य की श्रेष्ठता इस कारण से है कि उसके पास ज्ञान और विज्ञान हैं। वह अपनी शक्ति से ऐसे संसाधन खोज रहा है जिससे वह प्रकृति पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सके। धरती के चुम्बकीय क्षेत्र को पार कर मनुष्य अन्तरिक्ष में पहुंचा है। ज्ञात से अज्ञात कई गुना अधिक है फिर भी मनुष्य मन में यह अवक्त है कि प्रकृति और अन्य जड़-चेतन जीव उसके अधीन हैं। इससे मनुष्य अत्याचारी बन गया। सुरक्षाए स्वाद, सुविधा, प्रसाधन, परिवहन, उपचार, मनोरंजन आदि के लिए जीवों को परतंत्र ही नहीं करता, उनके प्राण तक लेता है। ‘जीव जीवस्य भोजनम् का अर्थ यह नहीं कि संतुलन का अतिक्रमण हो। आवश्यकता का गहन विवेचन न हो। सुरक्षा के लिए निर्मित अन्य शस्त्र स्वयं असुरक्षा के हेतु बन जाएं। संयम और विवेक अपरिहार्य है। जगत में भोग-परिभोग की विपुल सामग्री है। कई लोग समझते हैं सब कुछ मनुष्य के लिए ही तो है। किंतु मनुष्य के अतिरिक्त अनेक जीव जन्तुओं का हिस्सा है उसमें चौरासी लाख योनियां हैं। कई पदार्थ विशेष परिस्थितियों में विशेष अनुपात और विधि से प्रयुक्त होते हैं। अन्यथा प्राणलेवा तक बन जाते हैं। कई जड़ और सूक्ष्म जीवों की पहचान भी प्राणधारियों के रूप में नहीं हो पाती। दया का पालन तभी सम्भव है जब जीव-अजीव का ज्ञान हो। २८० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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