Book Title: Kuvalaymala Katha
Author(s): Vinaysagar, Narayan Shastri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 167
________________ कुवलयमाला-कथा [155] है। सूर्य का 'उदय' हुआ है, अत: आकाश-लक्ष्मी तारा रूपी पुष्पों के मिष से उसको अर्घ दे रही है और चन्द्रमा की किरणों रूपी जल से पाद्य दे रही है। राजन्! ऐसे प्रात:काल में तू मोह (निद्रा) का त्याग कर और केवल परलोक में हितकारी कार्य का आचरण कर।" इस प्रकार उनकी मङ्गल-स्तुति का पाठ सुनकर पूज्य महर्षि वासभवन के द्वार से बाहर निकला जैसे सिंह गुफा से निकला हो। लोच किये हुए केश वाले तथा पात्र, रजोहरण और मुखवस्त्रिका हाथ में लिए हुए राजा को देखकर शय्या का काम करने वाली सब स्त्रियाँ चिल्लाने लगीं-"अरे परिजनों! दौड़ो जल्दी दौडो, अपने स्वामी कोई विचित्र विडम्बना पाकर जा रहे हैं।" यह सुनकर संभ्रम के वश से गिरती-पड़ती हुई तथा नूपुर और करधनी से झनझनाहट करती हुई रनवास की स्त्रियाँ वाराङ्गनाएँ तथा परिजन सब के सब वहाँ इकट्ठे हो गये। उन्होंने कहा-"नाथ! हम निर्दोषों को त्याग करके और अपनी आत्मा को इस प्रकार विडम्बित करके आप कहाँ चले? हम आपके बिना निराश्रय हैं।" परिजन इस प्रकार का विलाप कर रहे थे तो भी उन्हें बिना उत्तर दिये ही राजर्षि वहाँ से आगे बढ़े। परिजन आदि का विलाप सुनकर राजा का प्रधान मन्त्री वहाँ आया और बोला-"देव! आपका यह मुनि वेष के समान आचरण आज यकायक क्यों हुआ?" किन्तु राजर्षि ने उसका भी कुछ उत्तर न दिया। अन्तःपुर के लोग तथा मन्त्री पीछे-पीछे चलने लगे। राजर्षि नगर के बाहर उद्यान में आये। वहाँ पहुँच कर वे प्रत्येक बुद्ध राजर्षि त्रस स्थावर जन्तु रहित, बोध देने योग्य स्थान पर बैठे। मन्त्री तथा अन्त:पुर के लोग उनके सामने बैठ गये। दर्पफलिक और भुजफलिक कुमार आकर पिता के पास बैठे। उन्हें प्रतिबोध देने के लिए पूज्य मुनिराज ने पाप- रूपी सर्प का जहर उतारने के लिए जाङ्गली विद्या के समान धर्मदेशना प्रारम्भ की "भय से सदा भरे हुए संसार रूपी अपार समुद्र में भ्रमण करते प्राणी को चिरकाल में मनुष्य-भव रूपी द्वीप मिलता है। भव्य जीवों! ऐसा मनुष्य जन्म पाकर तुम सदा सन्मार्ग के मुसाफिर बनो, जिससे दुःख रूपी तीखे काँटे तुम्हारे चरण को कष्ट न पहुँचा सकें। पृथ्वी, अप, अग्नि और वायु की सात-सात लाख, प्रत्येक और साधारण वनस्पति की दस तथा चौदह लाख द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की दो-दो लाख योनियाँ हैं। इनमें उत्पन्न होने से जीव जब तक मोक्ष का दाता सम्यक्त्व नहीं पाते, तब तक नाना प्रकार के दुःख भोगते हैं।" इस प्रकार तृतीय प्रस्ताव

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