Book Title: Kuvalaymala Katha
Author(s): Vinaysagar, Narayan Shastri
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 223
________________ कुवलयमाला-कथा [211] रत्न है तो मेरे हाथ में स्थित हुआ तो इसके शिर को अभी काट दे"।। ९३ ।। और विद्यासिद्ध ने सोचा- 'अरे, इसी स्त्री ने यह खड्गरत्न इसको अर्पित किया है' "अरी पापिन! कहाँ जाती है?" ऐसा कहता हुआ उसी दिशा में विद्यासिद्ध दौड़ा। जब तक इस वनिता तक नराधम नहीं पहुंचा तब तक राजपुत्र ने जल्दी से इसका शिर काट दिया।। ९४।। चम्पकमाला ने कहा "हे कुमार महाशय! इसके मुख के भीतर एक गुटिका है, इसके मुख को चीर कर तुम उसको ले लो।। ९५ ।।" उसने यह सुन कर उसके चीरे हुए मुख से लेकर और धोकर अपने मुख में तत्क्षण डाल ली।। ९६ ।। तब उस कुमार का उसी ललित विलासिनी जन के साथ विषय सुख का अनुभव करते हुए का समस्त गुरु वचन को विस्मृत किये हुए का, अपनी शक्ति से जीते हुए सिद्ध से प्राप्त अनेक प्राणयिजनों से युक्त पातालभुवन वाले वहीं रहते हुए का एक दिन की तरह बारह वर्ष बीत गये। बारह वर्ष के निकट सोये हुए उसके रात्रि के पश्चिम याम में न दीख पड़ते हुए मङ्गलपाठक ने पढ़ा "हे नरेश्वर! प्रभातसमय निद्रामोह को छोड़ दीजिये। कर्म निर्मूलन में समर्थ सद्धर्म का अवलम्बन लीजिये।। ९८।।" दुस्तर घोर संसारसागर को जान कर, स्त्रीसङ्ग त्याग कर इस धर्मपोत को अलङ्कृत कीजिये।। ९९ ।।" यह सुनकर राजपुत्र ने चिन्तन किया -'अरे, यह कहाँ वन्दि-ध्वनि है?' उन्होंने कहा - "देव! नहीं जानतीं, वह दिखायी नहीं देता, केवल शब्द ही सुना जाता है।" इस प्रकार सात दिन तक 'जय-जय' इस शब्द के सहित संसार से वैराग्य उत्पन्न करने वाले वचनों का उच्चारण करते हुए बन्दी ने उसके चित्त को आश्चर्य चकित कर दिया। तब राजपुत्र ने कहा - "यह अवश्य आयेगा तो इसीसे पूछता हूँ" इस प्रकार कहते हुए उस कुमार के वह दिव्य बन्दी प्रत्यक्ष होकर 'कुमार! जय हो जय हो' यह बोला। कुमार ने कहा "हे दिव्य! कहो किस कारण शीघ्र आये हो? मेरे सामने प्रतिदिन क्यों वैराग्यवचन कहते हो?।। १००।।" चतुर्थ प्रस्ताव

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