Book Title: Krodh Swarup evam Nirvutti ke Upay
Author(s): Hempragyashreeji
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 2
________________ १०८ क्रोध : स्वरूप एवं निवृत्ति के उपाय : साध्वी हेमप्रज्ञाश्री इसी प्रकार क्रोधी व्यक्ति भी चार प्रकार के होते हैं(१) शीघ्र क्रोधित, किन्तु अधिक देर नहीं । (२) शीघ्र क्रोधित नहीं किन्तु आने पर बहुत देर क्रोध । (३) शीघ्र क्रोधित एवं क्रोध का समय भी लम्बा । (४) न शीघ्र क्रोधित, न ही अधिक समय तक क्रोध । जैनागमों में क्रोध के काल की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी आदि भेद बताए गए हैं- (१) अनन्तानुबन्धी- पर्वत की उस दरार के समान - जो दीर्घकालपर्यन्त बनी रहती है । उसी प्रकार जो क्रोध जीवनपर्यन्त बना रहता है - वह अनन्तानुबन्धी क्रोध हैं । ऐसा क्रोधी कभी आराधक नहीं हो सकता। इसलिए सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है - जिससे कम से कम एक वर्ष में तो हम क्रोध के प्रसंग की स्मृति को समाप्त कर दें । (२) अप्रत्याख्यानी — पृथ्वी पर बनी रेखा के समान जो काफी समय तक बनी रहती है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानी क्रोध अधिक से अधिक एक वर्ष तक रहता है-उसके पश्चात् तो वह निश्चित समाप्त हो जाता है । (३) प्रत्याख्यानावरण - बालू की रेखा - जिस प्रकार बालू मिट्टी पर बनी रेखा ( लकीर ) कुछ समय बाद समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरण क्रोध अधिक से अधिक चार माह तक रह सकता है । इसलिए चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है । (४) संज्वलन - जल की रेखा - जिस प्रकार जल में खींची रेखा तुरन्त समाप्त हो जाती है उसी प्रकार जो क्रोध तुरन्त शान्त हो जाता है-अधिक से अधिक १५ दिन तक रहता है- वह संज्वलन क्रोध है । इस अपेक्षा से पाक्षिक प्रतिक्रमण किया जाता है । प्रत्येक दिवस और रात्रि को होने वाली भूल के लिए देवसी - राई प्रतिक्रमण होता है । ये चारों भेद क्रोध की अभिव्यक्ति की अपेक्षा से नहीं अपितु क्रोध का प्रसंग स्मृति में कितने काल तक रहता है - इस अपेक्षा से किये गये हैं । स्थानांग सूत्र, प्रज्ञापना सूत्र में क्रोध की चार अवस्थाएँ बताई गई हैं (१) आभोग निर्वर्तित - बुद्धिपूर्वक किया जाने वालः क्रोध । वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि ने भोग का अर्थ ज्ञान बताया है ।" आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना सूत्र की टीका में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है ।" जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के द्वारा किए गए अपराध को भली भाँति जान लेता है और विचार करता है कि यह अपराधी व्यक्ति नम्रतापूर्वक कहने से समझने वाला नहीं है । उसे क्रोधपूर्ण मुद्रा ही पाठ पढ़ा सकती है। इस विचार से वह जानबूझ कर क्रोध करता है । १. ठाणं स्थान- ४, उ० ३, सू० ३५४ । ३. ठाणं स्थान ४, उ०३, सू० ३५४ ५. ठाणं स्थान ४, उ०३, सू० ३५४ । ६. ( अ ) ठाणं स्थान ४, उ०१, सू० ८८ । ७. ठाणं, स्थान ४, उ०१, सू० ८८ । ६. प्रज्ञापना, पद १४, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २६१ । Jain Education International २. ठाणं स्थान ४, उ०३, सू० ३५४ । ४. ठाणं स्थान ४, उ० ३, सू० ३५४ ॥ ( ब ) प्रज्ञापना, पद १४, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २६१ । ८. स्थानांग वृत्ति, पत्र १८२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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