Book Title: Krodh Swarup evam Nirvutti ke Upay Author(s): Hempragyashreeji Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 1
________________ क्रोध : स्वरूप एवं निवृत्ति के उपाय - - -साध्वी हेमप्रज्ञाश्री [स्व० प्रवतिनी विचक्षणश्री जी महाराज की शिष्या जैन आगमों की विशिष्ट अभ्यासी विदुषी श्रमणी] क्रोध एक ऐसा मनोविकार है, जिसकी अभिव्यक्ति अनेक व्यक्तियों के द्वारा अनेक रूपों में होती है। किसी का क्रोध ज्वालामुखी के विस्फोट के समान होता है तो किसी का क्रोध उस बड़वाग्नि के समान-जो समुद्र के अन्दर ही अन्दर जलती रहती है। किसी का क्रोध दियासलाई की भभक के समान एक क्षण जलकर समाप्त हो जाता है तो किसी का क्रोध कण्डे की अग्नि के समान धीरे-धीरे बहुत देर तक सुलगता रहता है। किसी का क्रोध मशाल की उस आग के समान होता है जो जलकर भी राह दिखा देती है तो किसी का क्रोध उस दावाग्नि के समान होता है जो सब कुछ भस्म कर देती है। किसी का क्रोध उस जठराग्नि के समान होता है जो स्वयं के लिए हितकारी बन जाता है और किसी का क्रोध उस श्मशान की आग के समान होता है जो शरीर की एक-एक बोटी को जला डालती है। क्रोध प्रायः प्रत्येक व्यक्ति में होता है। क्रोध की मात्रा में अन्तर हो सकता है, क्रोध की अभिव्यक्ति में भिन्नता हो सकती है, क्रोध के काल का प्रमाण अलग हो सकता है किन्तु यदि कोई व्यक्ति क्रोधरहित है तो वह महान सन्त/साधक या वीतराग हो सकता है । क्रोधी मनुष्य को सर्प की उपमा देते हुए तथागत ने चार प्रकार के सर्प बताए हैं।...(१) विषैला किन्तु घोर विषैला नहीं। (२) घोर विषैला, मात्र विषैला नहीं। (३) विषेला, घोर विषैला। (४) न विषैला, न घोर विषैला। १. अंगुत्तर निकाय, भाग-२ पृ० १०८-१०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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