Book Title: Krodh Swarup evam Nirvutti ke Upay
Author(s): Hempragyashreeji
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 6
________________ ११२ क्रोध : स्वरूप एवं निवृत्ति के उपाय : साध्वी हेमप्रज्ञाश्री ___ झंझा--अत्यन्त तीव संक्लेश परिणाम को झंझा कहते हैं। आचारांग सूत्र में झंझा शब्द का प्रयोग व्याकुलता के अर्थ में किया है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने क्रोध के कुछ अन्य रूपों की भी व्याख्या की है (१) चिड़चिड़ाहट-क्रोध का एक सामान्य रूप है-चिड़चिड़ाहट । जिसकी व्यंजना प्रायः शब्दों तक ही रहती है। कभी-कभी चित्त व्यग्र रहने, किसी प्रवृत्ति में बाधा पड़ने पर या किसी बात की मनोनुकूल सुविधा न मिलने के कारण चिड़चिड़ाहट आ जाती है। _ स्वयं को बुद्धि, सत्ता, सम्पत्ति में अधिक मानने वाला, स्वयं को व्यस्त और दूसरे को व्यर्थ मानने वाला भी प्रायः चिड़चिड़ाहट से उत्तर देता है। (२) अमर्ष-किसी बात का बुरा लगना, उसकी असाध्यता का क्षोभयुक्त और आवेगपूर्ण अनुभव होना अमर्ष कहलाता है । क्रोध की अवस्था में मनुष्य दुःख पहुँचाने वाले पात्र की ओर ही उन्मुख रहता है । उसी को भयभीत या पीड़ित करने की चेष्टा में प्रवृत्त रहता है । क्रोध एवं भय में यह अन्तर है कि क्रोध दुःख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल रहता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। __ अमर्ष में दुःख पहुँचाने वाली बात के पक्षों की ओर तथा उसकी असह्यता पर विशेष ध्यान रहता है। झल्लाहट, क्षोभ आदि भी क्रोध के ही रूप हैं । जब किसी की कोई बात या काम पसन्द नहीं आता है और वह बात बार-बार सामने आती है तो झल्लाहट उत्पन्न हो जाती है जो क्रोध का ही एक रूप है । अपनी गलती पर मन का परेशान होना भी क्षोभ है। क्रोध के परिणाम-सर्वप्रथम तो क्रोधी व्यक्ति की आकृति ही भयंकर एवं वीभत्स हो जाती है। शारीरिक एवं मानसिक सन्तुलन अव्यवस्थित हो जाता है । आकृति पर अनेक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं जैसे मुख तमतमाना, आंखें लाल होना, होंठ फड़फड़ाना, नथुने फूलना, जिह्वा लड़खड़ाना, वाक्य व्यवस्था अव्यवस्थित होना । क्रोध को अग्नि की उपमा देते हुए हेमचन्द्राचार्य ने कहा है कि क्रोध सर्वप्रथम अपने आश्रयस्थान को जलाता है-बाद में अग्नि की तरह दूसरे को जलाए या न जलाए । क्रोध के विषय में ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्य ने भी इसी प्रकार विवेचन किया है । यह निश्चित है कि क्रोधी व्यक्ति दूसरे का अनिष्ट कर सके या नहीं पर स्वयं के लिए शत्रु सिद्ध होता है । शारीरिक दृष्टि से उसकी शक्ति क्षय होती है और अनेकानेक रोगों का जन्म होता है। आज मनोविज्ञान और औषधि विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि क्रोध की स्थिति में थाइराइड १. क० चू०, अ० ६, गा० ८६ का अनुवाद २. आयारो, अ० ३, उ० ३, सू० ६६ ३. चिन्तामणि, भाग-२, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ० १३६ ४. चिन्तामणि-भाग २, रामचन्द्र शुक्ल, पृ० १२५ ५. योगशास्त्र, हेमचन्द्राचार्य प्रकाश ४, गा० १० ६. ज्ञानार्णव, शुभचन्द्राचार्य, सर्ग १६, गा०६ ७. (अ) शारीरिक मनोविज्ञान, ओझा एवं भार्गव, पृ० २१६ (ब) सामान्य मनोविज्ञान की रूपरेखा, डा० रामनाथ शर्मा, पृ० २४०-२४१ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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