Book Title: Kirtiratnasuri Rachit Neminath Mahakavya
Author(s): Satyavratsinh
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ । ७० हितं धर्मोषधं हित्वा मूढाः कामज्वरादिताः । १-ही प्रेम तद्यद्वशवर्तिचित्तः प्रत्येति दुःखं सुखरूपमेव मुखप्रियमपथ्यन्तु सेवन्ते ललनौषधम् ।।६।२४ ।२।४३ आत्मा तोषयितुं नैव शक्यो वैषयिकैः सुखैः । २-विचार्य वाचं हि वदन्ति धीराः ।३।१८ सलिलैरिव पायोधि: काष्ठरिव धनञ्जयः ।६।२५ ३- उच्चैः स्थितिर्वा क्व भवेज्जडानाम् । ६।१३ किन्तु क्रोध तथा युद्ध के वर्णन में भाषा ओज से ४-स्थानं पवित्राः क्व न वा लभन्ते । ६।३३ परिपूर्ण हो जाती है। ओजव्यंजक कठोर शब्दों के द्वारा ५-जनोऽभिनवे रमतेऽखिलः । ८१३ यथेष्ट वातावरण का निर्माण करके कवि ने भावव्यंजना को ६- काले रिपुमप्याश्रयेत्सुधीः । ८।४६ अतोव समर्थ बना दिया है। मोह तथा संयम के युद्ध ७-सकलोऽप्युदितं श्रयतीह जनः । ८।५३ वर्णन में भाषा की यह शक्तिमत्ता वर्तमान है। -पित्रोः सुखायैव प्रवर्तन्ते सुनन्दनाः । ६।३४ रणतूर्यरवे समुत्थिते भटहक्कापरिगजितेऽम्बरे। ___-शुद्धिर्न तपो विनात्मनः । ११।२३ उभयोर्बलयोः परस्परं परिलग्नोऽथ विभीषणो रणः ॥१११७६ पांचवे सर्ग में इन्द्र के क्रोधवर्णन में जिस पदावली को १०-नहि कार्या हितदेशना जड़े । १११४८ योजना की गयी है, वह अपने वेग तथा नाद से हृदय में ११-नहि धर्मकर्मणि सुधीविलम्बते । १२।२ ओज का संचार करती है। इस दृष्टि से यह पद्य विशेष इन बहुमूल्य गुणों से भूषित होती हुई भी नेमिनाथदर्शनीय है। काव्य को भाषा में कतिपय दोष हैं, जिनकी ओर संकेत न विपक्षपक्षक्षयबद्धकक्ष विद्युल्लताना मिव सञ्चयं तत्। करना अन्यायपूर्ण होगा। काव्य में कुछ ऐसे स्थलों पर स्फुरत्स्फुलिङ्ग कुलिशं करालं ध्यात्वेति यावत्स जिधृक्षतिस्म विकट समासान्त पदावली का प्रयोग किया गया है जहाँ ॥ ५९ उसका कोई औचित्य नहीं है। युद्धादि के वर्णन में तो कीतिराज की भाषा में बिम्ब निर्माण को पूर्ण क्षमता समास बहुला शैली अभीष्ट वातावरण के निर्माण में सहायक है। सम्भ्रम के चित्रण में भाषा त्वरा तथा वेग से पूर्ण होती है, किन्तु मेरुवर्णन के प्रसंग में इसकी क्या है। देवसभा के इस वर्णन में, उपयुक्त शब्दावली के सार्थकता है ? प्रयोग से सभासदों की इन्द्रप्रयाणजन्य आकुलता साकार भित्तिप्रतिज्वलदनेकमनोज्ञरलनिर्यन्मयूखपटलीसतत प्रकाशाः । हो उठी है। द्वारेषु निर्मक रपुष्करिणीजलोमिमूर्द्धन्महमुषितयात्रिकगात्रधर्माः दृष्टि ददाना सकलासु दिक्षु किमेतदित्याकुलितं ब्रु वाणा। ॥५५२ उत्थानतो देवपतेरकस्मात् सर्वापि चुक्षोभ सभा सुधर्मा ॥ इसके अतिरिक्त ने मिनाय महाकाव्य में यत्र-तत्र, छन्द ५।१८ पूर्ति के लिये बलात् अतिरिक्त पदों का प्रयोग किया गया नेमिनाथ काव्य में यत्र-तत्र मधुर सूक्तियों तथा है । स्वकान्तरक्ताः के पश्चात् 'शुचयः' तथा 'पतिव्रताः' लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है जो इसकी भाषा की (२।३६) का, शुक के साथ 'वि' का (२।५८) मराल के लोकसम्पृक्ति को सूचक हैं तथा काव्य की प्रभावकारिता साथ खग का (२।५९), विशारद के साथ 'विशेष्यजन' का को वृद्धिगत करतों हैं। कोतपय मार्मिक सूक्तियाँ यहाँ (१११।६) तथा वदन्ति के साथ 'वाचम्' का (३।१८) प्रयोग उधृत को जातो हैं। सर्वथा आवश्यक नहीं है । इनसे एक ओर, इन स्थलों पर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18