Book Title: Kirtiratnasuri Rachit Neminath Mahakavya
Author(s): Satyavratsinh
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf

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Page 12
________________ [ ६८ ] मुंह छिपाने के लिये, मन में मान-मारा फिरता हुआ चित्रित करके नवयौवना राजीमती के सर्वातिशायी मुखसौन्दर्य को मूर्त कर दिया है । यस्या वस्त्रेण जित: शंके लाघवं प्राप्य चन्द्रमाः । तुलवद्वायुनोत्क्षिप्तो बम्भ्रमीति नभस्तले ॥५२ रसयोजना शास्त्रीय विधान के अनुसार महाकाव्य में शृङ्गार, वीर तथा शान्त में से किसी एक रस की प्रधानता होनी चाहिए । नेमिनाथ महाकाव्य में शृङ्गार का अङ्गी रस के रूप में पल्लवन हुआ है । वीर, रौद्र, करुण आदि शृङ्गार रस के पोषक बन कर आए हैं । ऋतुवर्णन के प्रसंग में शृङ्गार के अनेक रमणीक चित्र दृष्टिगत होते हैं । स्मरपतेः पटहानिव वारिदान् निनदतोऽय निशम्य विलासिनः । समदना न्यपतन्नवकामिनीचरणयोः रणयोगविदोऽपि हि ॥ 1 ८।३७ यहाँ नायक की नायिकाविषयक रति स्थायीभाव है । प्रमदा आलम्बन विभाव है । कामदुन्दुभितुल्य मेघगर्जना उद्दीपन विभाव है। रणजेता नायक का मानभंजन के निमित्त नायिका के चरणों में गिरना अनुभाव है । औत्सुक्य, मद आदि व्यभिचारी भाव हैं। इन विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट होकर नायक का स्थायीभाव शृङ्गार के रूप में निष्पन्न हुआ है । निम्नोक्त पद्य में शृंङ्गाररस की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। उपवने पवनेरितपादपे नवतरं बत रन्तुमनाः परा । सकरुणा करुणावचये प्रियं प्रियतमा यतमानमवारयत् ।।६।२२ पांचवें सर्ग में सहसा सिंहासन के प्रकम्पित होने से क्रोधोन्मत हुए इन्द्र के वर्णन में रौद्र रस का भव्य चित्रण हुआ है। Jain Education International ललाटपट्ट भ्रुकुटीभयानकं ध्रुवो भुजंगाविव दारुणाकृती | यः काला अतिकुण्डखण्डानाभं मुखमादयेऽसौ ॥ ददंश दन्तै रषया हरिनिजी रसेन शच्या अधराविवाधरौ ॥ प्रस्फोटयामास करावितस्ततः क्रोधद्र मस्योल्बणपल्लवाविव ॥ ५।३-४ अज्ञात यहां इन्द्र का हृद्गत क्रोध स्थायीभाव है । जिनेश्वर आलम्बन विभाव है । सिंहासन का अकस्मात कांपना उद्दीपन विभाव है । ललाट पर भृकुटि का प्रकट होना, भौहों का तनना, नेत्रों का अग्निकुण्ड की भांति अग्निवर्षा करना, अधरों का काटना तथा हाथों का स्फोटन अनुभाव हैं। अमर्ष, आक्षेप, उग्रता आदि संचारी भाव संयोग से क्रोध रौद्र रस के रूप में व्यक्त हैं । इनके हुआ है । प्रतीकात्मक सम्राट मोह के दूत तथा संयमराज के नीतिनिपुण मन्त्री विवेक की उक्तियों के अन्तर्गत, ग्यारहव सर्ग में, वोररस की कमनीय झांकी देखने को मिलती है । यदि शक्तिरिहास्ति ते प्रभोः प्रतिगृह्णातु तदा तु तान्यपि । परमेष विलोलजिह्वया कपटी भापयते जगज्जनम् ||११|४४ मन्त्री विवेक का उत्साह यहाँ स्थायी भाव के रूप में वर्तमान है। मोहराज आलम्बन है । उसके दूत की कटूक्तियाँ उद्दीपन का काम करती हैं । मन्त्री का विपक्ष को चुनौती देना तथा मोह की वाचालता का मजाक उड़ाना अनुभाव हैं। धृति, गर्व, तर्क आदि संचारी भाव हैं । इस प्रकार वीररस समूचे उपकरण यहां विद्यमान हैं । इसी सर्ग में अप्रत्याशित प्रत्याख्यान से शोकतत राजीत के विलाप में करुणरस को सृष्टि हुई है । अथ भोजनरेन्द्रपुत्रिका प्रविमुक्ता प्रभुगा तपस्विनी । व्यलपद्गलदश्रुलोचना शिथिलांगा लुठिता महीतले ॥११॥१ राजीमती का निराकरणजन्य शोक स्थायीभाव है । नेमिनाथ आलम्बन विभाव हैं। विवाह से अचानक विरत होकर उनका प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना उद्दीपन विभाव है। पृथ्वी पर लोटना, अंगों का विचित्र होना तथा आपू For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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