Book Title: Khartargaccha ki Krantikari aur Adhyatmika Parampara Author(s): Bhanvarlal Nahta Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf View full book textPage 5
________________ । १२१ । सतरहवीं शती के "सुमति" नामक खरतरगच्छीय कवि प्रवर श्रीबुद्धिसागरसूरिजी ने अध्यात्म-ज्ञान-प्रसारक मंडल अध्यात्मरसिक हुए हैं। जिनके कतिपय पद तत्कालीन से श्रीमद्देवचन्द्र भाग-१-२ में प्रकाशित की थी एवं आचार्य लिखित हमारे संग्रह के दो गुटकों में मिले जो “वीर वाणो" महाराज ने आपकी संस्कृत स्तुति आदि में बड़ी ही भक्ति में प्रकाशित किये हैं। प्रदर्शित की है। श्रीमद्देवचन्द्रजी ने क्रियोद्धार किया था, सतरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनप्रभसूरि शाखा वे सर्वगच्छ समभावी और जनशासन के स्तम्भ थे। के विद्वान भानुचन्द्रगणि से शिक्षा प्राप्त श्रीमालज्ञातीय आपने सं० १८१२ भा० व० १५ के दिन नश्वर देह का बनारसीदास नामक सुकवि हुए। उन्होंने दिगम्बराचार्य त्याग किया। विशिष्ट महापुरुषों द्वारा ज्ञात अनुश्रुतियों कुन्दकुन्द के समयसारादि ग्नन्थों से प्रभावित होकर अध्यात्म के अनुसार आप वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में केवली मार्ग को विशेष रूप से अपनाया जिससे उनका मत अध्यात्म पर्याय में विचरते हैं। मती-बनारसीमत नाम से प्रसिद्ध हो गया। थोड़े समय में श्रीमदेवचन्द्रजी महाराज के रास-देवविलास में आपके ही इस अध्यात्म मत का दूर दूर तक जबर्दस्त प्रभाव फैला। ध्रांगध्रा पधारने पर जिन सुखानन्दजी महाराज से मिलने सुदूर मुलतान के कई खरतरगच्छीय ओसवाल श्रावकों ने कारत का उल्लेख आया है वे सुखानन्दजी भी खरतरगच्छ के ही भी उससे अध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त की; फलतः उधर विचरने अध्यात्मी पुरुष थे उनके कई पद आनन्दघन बहुत्तरी में वाले सुमतिरंग, धर्ममन्दिर, और श्री मद्देवचन्द्रजी ने कई प्रकाशित पाये जाते हैं तथा कई तीर्थकरों व दादासाहब के महत्वपूर्ण अध्यात्मिक रचनायें उन्हीं आध्यात्मिरसिक श्रावकों स्तवन भी उपलब्ध हैं। दीक्षानन्दी सूची के अनुसार आप की प्रेरणा से की। बनारसीदासजीका समयसार, बनारसी। सुगुणकीर्ति के शिष्य थे और सं० १७२८ पोष बदि ७ को विल स, अर्द्ध कथानक आदि साहित्य उल्लेखनीय है। बीकानेर में श्रीजिनचन्द्रसूरि द्वारा दीक्षित हुए थे। सं० श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज अकबर-प्रतिबोधक चतुर्थ १८०५ में ध्रांगध्रा प्रतिष्ठा के समय देवचन्द्रजी से बड़े दादा श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के शिष्य श्री पुण्यप्रधानोपाध्याय प्रेमपूर्वक मिले उस समय आपकी आयु ६० वर्ष से कम नहीं को शिष्य-परम्परा में उ० दोपचन्द्रजी के शिष्य थे। होगी। श्रीसुखानन्दजी की कृतियां अधिक परिमाण में आपका जन्म सं० १७४६ में बीकानेर के किसी गांव में मिलनी अपेक्षित है। लूणि पा तुलसीदासजी के यहां हुआ। लघुक्य में दीक्षा उन्नीसवीं शताब्दी के खरतरगच्छीय विद्वानों में लेकर श्रुतज्ञान की जबदरस्त उपासना की। आप अपने समय श्रीमद्ज्ञानसारजी बड़े ही अध्यात्मयोगी हुए हैं जिन्हें छोटे के महान् प्रभावक, अतिशय-ज्ञानी और अद्वितीय अध्यात्म आनन्दधनजी कहा जाता है। इनकी चौवीसी, बीसी, तत्त्ववेत्ता थे। आपकी १६ वर्ष की अवस्था में रचित बहुत्तरी इत्यादि संख्याबद्ध कृतियां हमारे "ज्ञानसार ग्रन्थाध्यानदीपिका चौपई जैसी रचनाओं से आपके प्रौढ़ वली" में प्रकाशित हैं। श्रीमद् आनन्दघनजी की चौवीसी पाण्डित्य और अध्यात्म ज्ञान का अच्छा परिचय मिलता और बहुत्तरी के कई पदों पर आपने वर्षों तक मनन कर है। चौवीसी आदि रचनाओं में आपने तत्त्वज्ञान और बालावबोध लिखे हैं जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । आपका जन्म भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित की है। स्नात्रपूजा आदि सं० १८०१ दीक्षा सं० १८२१ और स्वर्गवास सं० १८९८ कृतियाँ भक्ति की अजोड़ स्रोतस्विनी हैं । आपकी कृतियों में हुआ था। आपका दीर्घजीवन त्याग, तपस्या, उच्चकोटि का संकलन करके ४५-५० वर्ष पूर्व योगनिष्ठ आचार्य- को साहित्य साधना व योग साधनामय था । बड़े-बड़े राजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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