Book Title: Khartargaccha ki Krantikari aur Adhyatmika Parampara
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf

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Page 1
________________ खरतर गच्छ को क्रान्तिकारी और अध्यात्मिक परम्परा श्री भँवरलाल नाहटा आर्यावर्त के धर्म - शरीर की आत्मा जैनधर्म है । जिस प्रकार आत्मा के बिना समस्त शरीर शव के सदृश होता है, उसी प्रकार समस्त शुष्क क्रिया काण्ड यदि उनमें अध्यात्मिकता का अभाव हो तो वे केवलकाय - क्लेश मात्र होते हैं । आधिभौतिक साधना से आत्म शांति नहीं मिलती । आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व जब भगवान महावीर का प्रादु· भव हुआ, जनता त्रिविधताप सतप्त थी । शांति के लिए तड़फते प्राणियों को मृग मरीचिका के चक्कर में गोते लगाने के सिवा परिणाम शून्य था । जहां वेद-पुराणादि सभी शास्त्र भौतिक शिक्षा एवं एकान्तिक आत्म प्ररूपणा तक सीमित रह गए, जेनागमों का प्रथम अंग आचारांग "आत्मा क्या है ?" इस प्राइमरी शिक्षा का उद्घोष करता है । भगवान महावीर ने आत्मदर्शन को प्रधानता दी और लाखों वर्षों की शुष्क अज्ञान तपश्चर्या को व्यर्थ और ज्ञानीआत्मज्ञानी की क्रिया चर्या को सार्थक बतलाया । वह श्वासोश्वास में करोड़ों वर्षों के पापों को क्षय कर देता है । इसीलिए उन्होंने "अप्प नाणेण मुणो होई" कहा । बाह्य उपकरणों के मेरु जितने ढेर लगाकर भी कार्यसिद्धि में अक्षम बताकर आत्मज्ञानी श्रमणत्व की नींव दृढ की । धार्मिक क्षेत्र में फैले ढौंग रूपी अन्धकार को दूर करने के लिए आत्मज्ञान की दिव्य ज्योति प्रकट की । चित्तवृत्ति प्रवाह बाहर भटकने से रोक कर अन्तर्मुखी करके अखण्ड आनंद प्राप्ति की कला बता कर निवृत्ति मार्ग को प्रशस्त करने में भगवान की अमृत वाणी बड़ी ही अमोघ सिद्ध हुई । लाखों प्राणी निर्वाण मार्ग के पथिक होकर अप्रमत्त साधना में लग कर आत्मकल्याण करने लगे । भगवान महावीर T Jain Education International ने अपनी साधना का केन्द्र बिन्दु आत्म-विशुद्धि व आत्म साक्षात्कार को माना । साढ़े बारह वर्ष पर्यन्त ध्यान, मौन, कायोत्सर्गादि द्वारा बाहरी आकर्षणों से चित्तवृत्ति ओर प्रवृत्ति को हटा कर आत्मा की सम्पूर्ण शक्तियों को विकसित किया। देहात्म बुद्धि को मिथ्यात्व बतलाते हुए सम्यग्दर्शन ही वास्तव में आत्मदर्शन है, इसके प्राप्त होने पर सांसारिक या पौद्गलिक विषयों की आसक्ति स्वयं छूट जाती है, बतलाया । केवलज्ञान, केवलदर्शन आत्मा की पूर्ण निर्मलता, विशुद्धता द्वारा प्राप्त आत्मा की चैतन्य शक्ति का परिपूर्ण विकास ही है । आचारांग सूत्र में उन्होंने कहा है, जो एक आत्मा को जान लेता है वह सब को जान लेता उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है - आत्मा ही अपना शत्रु और आत्मा ही अपना मित्र है, बाहरी शत्रुओं से युद्ध करने का कोई अर्थ नहीं; आत्मा के शत्रु राग, द्वेष, मोह हैं उन्हीं पर विजय प्राप्त करो । बाह्य तपश्चर्या आत्मलीनता हेतु और देहासक्ति के परित्याग रूप है । छः आवश्यकों में कायोत्सर्ग देहासक्ति का त्याग रूप ही है क्योंकि पुद्गल मोह मिटे बिना अन्तर्मुख वृत्ति नहीं होती और आत्मदर्शन नहीं होता । इच्छा ही बंधन है, इच्छा निरोध ही तप और आत्म-रमणता हो चारित्र है । हमारे समस्त धर्माचरणों का उद्देश्य आत्म विशुद्धि ही होना चाहिए । आत्म' केन्द्रित साधना ही सही मोक्ष मार्ग है । 1 भगवान महावीर की इस अध्यात्मिक परम्परा को अनेकों भव्यात्माओं ने अपनाते हुए आत्म कल्याण किया । समय-समय पर जो बहिर्मुखता की अभिवृद्धि हुई उसे दूर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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