Book Title: Kayotsarga Kaya se Asangta Author(s): Kanhaiyalal Lodha Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 1
________________ कायोत्सर्ग : काया से असंगता श्री कन्हैयालाल लोढा साधक के आत्मिक गुणों के घात को जैनागमों में अतिचार कहा है। अतिचारों के शोधन के लिए प्रतिक्रमण में पाँचवें आवश्यक के रूप में कायोत्सर्ग का विधान किया गया है। आदरणीय लोढ़ा सा. के अनुसार कायोत्सर्ग का तात्पर्य है काया से अपने को पृथक् समझना, असंग हो जाना, देहातीत हो जाना। लेख में कायोत्सर्ग पर सूक्ष्म चिन्तन प्रस्फुटित हुआ है । -सम्पादक 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 215 प्रतिक्रमण के साथ कायोत्सर्ग का घनिष्ठ सम्बन्ध है । प्रतिक्रमण चतुर्थ आवश्यक है तो कायोत्सर्ग पाँचवाँ आवश्यक ! कार्योत्सर्ग षडावश्यक का एक अंग है। कायोत्सर्ग का अर्थ है- काया का उत्सर्ग करना, देहातीत अवस्था का अनुभव करना । अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग को 'व्रण - चिकित्सा' कहा है, जो उपयुक्त ही है। कारण कि भोगासक्ति, मोह, असंयम आदि दोषों के कारण आत्मा के ज्ञानदर्शन-चारित्र गुणों का घात करने रूप घाव हो जाते हैं। उन घावों का उपचार (चिकित्सा) कायोत्सर्ग है। साधक के आत्मिक गुणों के घात ( घाव ) को जैनागमों में अतिचार कहा है। इन अतिचारों के विशोधन के लिये ही कायोत्सर्ग का विधान है, जैसा कि आवश्यक सूत्र के पाँचवें आवश्यक कायोत्सर्ग के प्रतिज्ञा पाठ में कहा है। : 'आवस्सं हि इच्छाकारेणं संदिसह भगवं! देवसिय पडिक्कमणं ठाएमि देवसिय पाण-दसण-चरित्ततय-अइयार-विसोहणट्टं करेमि काउस्सग्गं ।' अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के अतिचारों के विशोधनार्थ कायोत्सर्ग करता हूँ । अतिचारों से रहित होना, निर्दोष होना है। इस प्रतिज्ञा पाठ के पश्चात् सामायिक सूत्र 'करेमि भंते का पाठ', प्रतिक्रमण सूत्र (इच्छामि ठामि काउसग्गं का पाठ) तथा कायोत्सर्ग सूत्र ( तस्स उत्तरीकरणेणं का पाठ) बोले जाते हैं, जो कायोत्सर्ग अर्थात् देहातीत होने के लिये साधन रूप हैं। Jain Education International कायोत्सर्ग अर्थात् देहातीत अवस्था का अनुभव करने के लिये अंतर्मुखी होना और बहिर्मुख प्रवृत्ति रहित होना आवश्यक है। बहिर्मुख वह ही होता है, जिसकी मन, वचन व शरीर की क्रियाएँ बहिर्गमन कर रही हैं। इसे आगम में सावद्य योग कहा है। सावद्य योग में कर्तृत्व, भोक्तृत्व (फलाकांक्षा) भाव होने से राग-द्वेष उत्पन्न होता है, जिससे समत्वभाव भंग होता है। समत्व के अभाव में कोई भी साधना व चारित्र संभव नहीं है । अतः 'करेमि भंते' के पाठ से समत्व को ग्रहण करने के लिये सावद्य योग का त्याग किया जाता है। इसे ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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