Book Title: Kavyaprakash ke Anuthe Tikakar Manikyachandrasuri Author(s): Parul Mankad Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 2
________________ Vol. I- 1995 कास्यप्रकाश के अनूठे टीकाकार... रह जाती है। जब कि आचार्य माणिक्यचन्द्र की पदसंघटना और अभिव्यक्ति प्रसन्नगम्भीरा और निर्मलप्रवाहा है। एक सुसज्ज टीकाकार की सभी विशेषताएं उनमें भरी/पूरी हैं। का० प्र० की टीका के आरंभ में ही माणिक्यचन्द्र ने का० प्र० की महत्ता सिद्ध करते हुए इस ग्रन्थराज को 'सर्वालङ्कृतिफालभूषणमणि की विशेषणमाला अर्पित की है । संकेत की रचना को उन्होंने साहसपूर्ण बताया है। आरम्भिक पद्यों में उन्होंने नम्रतापूर्वक निवेदन किया है कि यश, प्रीति, इत्यादि के लिए उन्होंने संकेत का विरचन नहीं किया है, परंतु तीन निमित्त हैं, जिन से उनको संकेतरचना की प्रेरणा मिली। (१) स्वानुस्मरण के लिये, (२) जडों पर उपकार हेतु, (३) चेतोविनोद-स्वान्तः सुखाय' (का० प्र० संकेत० १, १०६)। का० प्र० के संकेत को उन्होंने एक कन्था की उपमा दी है। जिस में अनेकानेक ग्रन्थों का चयन है। श्री वेंकटनाथाचार्य के शब्दों में यह तो ज्ञानप्राप्त्यर्थ उनका भिक्षाटन है । इसलिए उनकी यह कन्था कोई साधारण भिक्षुक की तरह फटी-चोरी नहीं है, किन्तु राजयोगी की रेशमी कन्था की तरह उसकी बुनाइ निराली है। तानेबाने इतने सुग्रथित है कि, पृष्ठ पृष्ठ पर अनेक ग्रन्थ-ग्रन्थाकार और पूर्वप्राप्त परंपरा की दुर्लभ सामग्री प्रकटित होती है। करीबन ३२ ग्रन्थकार और ११ ग्रन्थों का निर्देश संकेत में हुआ है। “मम्मट का हृदय वे ही जानते हैं" यह उनका दावा महदंशेन सत्य है। सांडेसरा के कथन ".... उन्होंने नवम उल्लास के प्रारम्भ में- 'लोकोत्तरोऽयं संकेतः कोऽपि कोविदसत्तमाः।' नामक पंक्ति आलेखित की, जो कि गर्व से रहित और गुण से सहित है"।" से सभी सहमत होंगे। तीनों 'संकेत'-कारों के समय तक आचार्य मम्मट 'वाग्देवतावतार' रूप में कदाचित् प्रतिष्ठित नहीं हुए थे। रुय्यक-सोमेश्वर की ही तरह आचार्य माणिक्यचन्द्र भी मम्मट की आलोचना करते हुए किसी तरह की भी हिचकिचाहट का अनुभव नहीं करते। कहीं पर भी यदि उन्होंने मम्मट के मत को अयोग्य पाया, तो वे स्पष्ट शब्दों में अपनी असहमति प्रकट कर देते हैं । रुय्यक और सोमेश्वर जैसे पूर्वगामी टीकाकारों से उन्होंने बहुत कुछ ग्रहण किया, लेकिन रुय्यक-सोमेश्वर के मतों का खण्डन भी उन्होंने किया है। यहाँ कुछ टीकांश पर दृष्टिपात किया जाय। का०प्र० के प्रथम उल्लास में प्रथम मंगलकारिका की टीका में 'नवरसरुचिरा' भारती का विवरण माणिक्यचन्द्र ने विस्तार से किया है। मम्मट का समर्थन भी किया है । (पृ० ११-१२) काव्यप्रयोजनों की चर्चा में माणिक्यचन्द्र पर संभवतः हेमचन्द्र का प्रभाव है। वे कदाचित् तीन प्रयोजन-सद्य:परनिर्वृत्तये, कान्तासंमिततयोपदेशयुजे और व्यवहारविदे-का ही अङ्गीकार करते हैं। (पृ०१८) मम्मट के काव्यलक्षण की व्याख्या आचार्य माणिक्यचन्द्र ने स्वरूपलक्षी की है। अनुगामी टीकाकारों के वाद-विवाद का यहाँ अभाव है। किन्तु अस्फुट अलंकरण के उदाहरण की व्याख्या में आचार्य माणिक्यचन्द्र ने अपना स्वतंत्र अभिप्राय व्यक्त किया है। रुय्यक की तरह उन्होंने यहाँ विभावना-विशेषोक्ति का संदेह-संकर नहीं माना और न ही सोमेश्वर की तरह केवल विशेषोक्ति को स्वीकार किया है। परंतु 'य: कौमार हर' इत्यादि उदाहरण में आचार्य माणिक्यचन्द्र ने भेदे-अभेदरूपा अतिशयोक्ति दिखाकर नूतन अभिगम अपनाया है। हालांकि रूपकातिशयोक्ति (भेदे-अभेदरुपा) में निगरण अनिवार्य है और इस उदाहरण में निगरण का अभाव है। परंतु आचार्य माणिक्यचन्द्र आचार्य शोभाकरमित्र की तरह सादृश्यमूलक अलंकारों को संभवत: सादृश्येतर सम्बन्ध में भी स्वीकृत करते हैं, इसलिए उन्होंने प्रस्तुत उदाहरण में “उस चैत्र रात्रि का इस चैत्र रात्रि' के साथ अभेद सम्बन्ध की कल्पना कर के इसको रूपकातिशयोक्ति के उदाहरण के रूप में घटित किया है। तथापि जहाँ तक रसास्वाद का सवाल है, वहाँ तक तो मम्मट का उदाहरण उचित है ही, क्यों कि उसमें शुद्ध शृंगाररस है, और वह उत्तम काव्य (=ध्वनिकाव्य) का उदाहरण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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