Book Title: Kavyaprakash ke Anuthe Tikakar Manikyachandrasuri Author(s): Parul Mankad Publisher: Z_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf View full book textPage 5
________________ ५६ पारुल मांकड गया है ( पृ० ३३३) । नाट्य में शान्तरस की स्वीकृति पहले से नहीं थी । भरतनाट्यशास्त्र में तो आठ रसों का ही उल्लेख था, इस परंपरा से भी माणिक्यचन्द्र पूरी तरह अवगत थे। उन्होंने अन्तिम श्लोकों में इसका निर्देश भी दिया है: भरतेन परित्यक्तोऽस्मीति कोपं वहन्निव। शान्तो रसः तदधिकं भेजे श्री भरतेश्वरम् ।। Nirgrantha काव्यप्रकाश को दो कर्ताओं (मम्मट और अलक या अल्लट) होने की प्राचीन अनुश्रुति भी माणिक्यचन्द्र को ज्ञात थी । इत्येष मार्गो.... इत्यादि का० प्र० के अन्तिम पद्य पर लिखते हुए उन्होंने इसका निर्देश किया है : 1 Jain Education International ( संकेत २, पृ० ६१०) · अथ चायं ग्रन्थः अन्येनारब्धः, अपरेण च समर्थितः इति द्विखण्डोऽपि सङ्घटनावशात् अखण्डायते। सुघटं हि अलक्ष्यसन्धि स्यात् इत्यर्थः (संकेत - २, पृ० ६०९ ) । पूरे संकेत का हम सिंहावलोकन करें तो उनकी निम्नोक्त विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं। (१) आवश्यक स्थलों पर टीका, अनावश्यक स्थलों का संक्षेप । (२) पूर्वसूरियों के मत का यथायोग्य निरूपण और स्वाभिप्राय । (३) मूलग्रन्थ को विशद करने के लिए कई स्वरचित उदाहरण, जो उनको 'सहृदय कवि' भी सिद्ध करते हैं। (४) जैन मुनि होते हुए भी ब्राह्मण परंपरा के ग्रन्थों का गंभीर अध्ययन, जैसे शैवशास्त्र, न्याय-वैशेषिकशास्त्र (संकेत१, पृ० ९,१३०) । (५) जैनेतर काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों का निष्पक्ष अध्ययन और आनन्दवर्धन तथा अभिनवगुप्त की परंपरा की ओर झुकाव। (६) डा० सांडेसरा के शब्दों में असामान्य बुद्धिवैभव, व्युत्पन्न पांडित्य और मार्मिक रसज्ञता से अंकित | (७) पद-पद पर रसध्वनि व्यञ्जनासिद्धांत' का अनुमोदन । (८) विवेचन की प्रणाली प्राचीन भारतीय ही रही है, अन्य आचार्य व टीका ग्रन्थांश का खण्डन भी पुनर्मंडन हेतु ही किया गया है। उसमें कहीं भी आक्रोश नहीं अपितु, सौम्य सूर ही है। (९) मीमांसा न्याय व्यञ्जनास्थापन इत्यादि दुर्योध विषयों का सरलीकरण । (१०) स्वयं माणिक्यचन्द्र के शब्दों में - गुणानपेक्षिणी यस्मिन् अर्थालङ्कारतत्परा । प्रौढाऽपि जायते बुद्धिः संकेतः सोऽयमद्भुतः ॥ इस तरह माणिक्यचन्द्र ने हेमचन्द्र की तरह ही काव्यशास्त्र में योगदान करके भले ही वह टीका ग्रन्थ के रूप में हो, गूर्जरधरा को गौरव बक्षा है। उनका सारस्वत्व, मुनि की निर्ममता, मौलिकता, सहृदयता, टीका संरचन में सौष्ठव, आलोचक की चकोर दृष्टि - सभी गुण उनके संकेत के लिए भूषण समान हैं। अद्भुत ――― For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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