Book Title: Katharatnasagar
Author(s): Munichandrasuri
Publisher: Omkar Gyanmandir Surat
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________________ 197 परिशिष्ट-३ सुभद्राकथा श्वश्रूः सोत्प्रासमित्यूचे, सतीत्वं विदितं तव / पुराऽस्माकमिदानीं तु, वेत्तु सर्वोऽपि पूर्जनः // 43 // अपावृतो पुरी द्वारं, न क्षमा कोपि सत्यपि / यदि त्वमाशिषे येन, सदाश्रवणसेविका // 44 // गुणैर्भद्रा सुभद्राऽऽह, मातर्युक्तं वदत्यसि / पञ्चाचारेण युक्तं तु, ममापि स्वपरीक्षणम् // 45 // उक्त्वेति चालनी कूपे, तन्तूपेतां विधाय सा / अविक्षेपेण चिक्षेप, वीक्ष्यमाणा पुरीजनैः // 46 // एतया कृष्यमाणाया-श्चालन्या न लवोपि हि / छिद्रैर्जगाल तोयस्य, स्मृतेरिवसुधीहृदः // 47 // साम्भसापि हि चालन्या, भारतः सूत्रतन्तवः / अक्षता एव ते तस्थु-स्तस्या एव गुणा इव // 48 // श्रुत्वा प्रभावमेतस्या, नृपस्तत्रैत्य तामिति / ऊचे सति ! कपाटानि, त्वमपावृणु सत्वरम् // 49 // ततः सचिवसामन्त-पौर-भूपपुरस्कृता / चालन्या बिभ्रती तोयं, साऽगमत् पूर्वगोपुरम् // 50 // परमेष्ठिनमस्कार-मुच्चरन्ती महासती / आजघान कपाटं सा, तत्रोपचुलुभिस्त्रिभिः // 51 // तत्सतीत्वं प्रशंसन्तौ, भट्टवन्निनदच्छलात् / कपाटावुद्धटेते स्म, स्पृष्टौ तेनाम्भसा क्षणात् // 52 // दिशः प्रसादमासेदुः, नेदुदुन्दुभयो दिवि / अमितिर्महिमा तस्या-स्त्रिदशैः सुष्ठ तुष्टवे // 53 // 198 कथारत्नसागरे प्रागवत् प्रतीच्य-प्राच्यौ च तया सत्या प्रतोलिके / उन्मुद्रिते मुखे श्वश्रू-ननान्द्रोर्मुद्रिते पुनः // 54 // गत्वोदीच्याः प्रतोलीं सा, प्राह काप्यपरा सती / या कुतोऽप्येष्यति द्वार-मेतद् उद्घाटयिष्यति // 55 // तदद्याप्यस्ति चम्पायां, बद्धमुत्तरगोपुरम् / यत्सुभद्रावदातस्य, विभात्याघाटवत् स्वयम् // 56 / / दर्शनज्ञानचारित्र-प्ररूढयशसः किल / सञ्चाराय सती दिक्षु, त्रीणि द्वारण्यपावृणोत् // 57 // भर्गभालेन्दुलेखेव निलक्ष्मा निखिले पुरे / चक्रे चैत्यपरिपाटी, सा सपौरनृपान्विता // 58 // तां प्रवेश्य सती वेश्म, नत्वा नुत्वा च भूपतिः / पौरवारश्च सर्वोऽपि, स्वं स्वं धाम जगाम सः // 59 // श्वश्रूश्वशुरवर्गेण, पश्चात्तापपरेण सा / अमान्यत पितृभ्यां साऽभ्यनन्द्यत सतीतमाः // 60 // क्षमिताथ निपत्य पादयो दयितेनापि चिरं गृहे स्थिता / अधिगत्य च संयम क्रमात् प्रययौ सा शुभसंयुतां गतिम् // 61 // सुभद्राकथा

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