Book Title: Katharatnakar
Author(s): Hemhans Gani, Munisundarsuri
Publisher: Omkar Sahityanidhi Banaskantha

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Page 17
________________ प्रस्तावना लेखक : डॉ. प्रवेश भारद्वाज प्राचीन काल से ही भारत में लोक कथाओं की लुमावनी परम्परा सुरक्षित रही है । साहित्य की इस विधा पर भास के बाद तो स्वतंत्रतापूर्वक लेखनी चली। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि सभी साहित्यो में इसको सुनहले धागों से पिरोया गया । जातक कथाओं तथा गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' को ऐसे कथा साहित्य का जनक माना जाता है । कालान्तर में सोमदेवकृत 'कथासरित्सागर' (१०६३ ई०), क्षेमेन्द्रकृत 'बृहत्कथामञ्जरी', 'पञ्चतन्त्र', 'वेताल पञ्चविंशातिका', क्षेमङ्करकृत 'सिंहासनद्वात्रिंशिका' तथा 'शुकसप्ताति' अधिक लोकप्रिय हुई | I ' एक समय था जब विश्व भर की लोक कथाओं का मूल भारत माना जाता था । यहीं से चलकर वे विश्वभर में फैली। इन कथाओं की विश्व यात्रा के मार्ग में गुजरात भी पडा । यहाँ के जैनो ने कथात्मक साहित्य को अभूतपूर्व ढंग से सम्पन्न किया । इन पूर्ववर्ती कथाओं से प्रेरणा ग्रहण करके काव्यों तक की रचना की क्योंकि उनमें लोककथाओं की अत्याधिक प्रसिद्धि हुई वस्तुतः अधिकांश जैन आगम और धर्मेतर साहित्य इन जनप्रिय कथाओं से समलंकृत है। जैन कवियों और साहित्यकारो में कथा - सृजन की रुझान अत्यधिक रही है। उन्होंने साहित्यकी इस विधा का संरक्षण करके अगणित कथाओं को सुरक्षित रक्खा हैं । अङ्गों नियुक्तियाँ, भाष्यों, चूर्णियाँ आदि में भी कुछ कथाएँ प्राप्त होती हैं । सगर-पुत्रों, गङ्गावतरण और कृष्ण की पौराणिक कथाएँ देवेन्द्रकृत 'उत्तरञ्झयण' में उपलब्ध है । 'नायाधम्म - कहाओ' में द्रौपदी व उसके पाँच पतियों की कथाएँ सङ्ग्रहीत हैं। आ. श्रीहरिभद्रसूरि श्रीशीलाङ्काचार्य आ. शान्तिसूरि, आदि ने भी कथा - साहित्य का पोषण किया है। ये कथा-साहित्य अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय है जो एक ओर धार्मिक उद्देश्य पूर्ण करते हैं तथा दूसरी ओर स्वस्थ मनोरंजन। इसमें तपागच्छ के सोमसुन्दरसूरि के शिष्य जिनकीर्ति (१५वीं (शताब्दी) की 'कालकाचार्यकथानक', 'उत्तम (कुमार) चरित्र कथानक' (१४७६ ई०), 'चम्पक श्रेष्ठिकथानक', और 'पालगोपालकथा' तथा जयविजय के शिष्य मानविजयकृत 'पापबुद्धिधर्मबुद्धिकथा' (कामघटकथा) की गणना की जा सकती है। भावदेवसूरिकृत 'कालिकाचार्यकथा 'भी प्रसिद्ध है जो १०२ प्राकृत पद्यों में निबद्ध है और जिसमें कथाकार स्वयं अपने को कालिकाचार्य का उत्तराधिकारी वर्णित करता है । परवर्ती में जैनों ने कथाओं का अनूठा सङ्ग्रह करना शुरु किया जैसे 'सम्यक्त्वकौमुदी'। इसे ए. वेबर ने १८८९ ई. में प्रकाशित किया था और 'अरेबियन नाइट्स' से इसकी तुलना की थी। सी. एच. टॉनी द्वारा १८९५ ई० में अंग्रेजी में अनूदित २७ कथाओं का 'कथाकोश' (अज्ञातकर्तृक) तथा शुभशीलगणिकृत 'कथाकोश', जीनेश्वरकृत २३९ प्राकृत गाथाओं का 'कथानककोश', राजशेखरसूरिकृत नीतिपरक कथाओं का गद्यात्मक 'अन्तरकथासङ्ग्रह ' ( विनोदकथासङ्ग्रह) तथा सोमचन्द्रगणिकृत ‘कथामहोदधि' (१४४८ ई०) अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । तपागच्छीय रत्नशेखरसूरि के शिष्य सोमचन्द्र ने १५७ 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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