Book Title: Karttavya Karm
Author(s): Swami Sharnanand
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 2
________________ २५४ ] [ कर्म सिद्धान्त अपने में अपने आप जागृत होती है, उसके लिये किसी कारण की अपेक्षा नहीं है । स्मृति में ही प्रीति, बोध तथा प्राप्ति निहित है । जिस प्रकार काष्ठ में अभिव्यक्त हुई अग्नि काष्ठ को भस्मीभूत कर देती है, उसी प्रकार अपने में ही जागृत स्मृति समस्त दोषों को भस्मीभूत कर देती है । अखण्ड स्मृति किसी श्रमसाध्य उपाय से साध्य नहीं है, अपितु विश्राम अर्थात् सत्संग से ही साध्य है । अविनाशी का संग किसी उत्पन्न हुई वस्तु के आश्रय से नहीं होता, ममता, कामना एवं तादात्म्य के नाश से ही होता है, जो अपने ही द्वारा अपने से साध्य है । जो उत्पत्ति विनाशयुक्त है, उसका श्राश्रय अनुत्पन्न अविनाशी तत्त्व ही है । अविनाशी की मांग मानव मात्र में स्वभाव सिद्ध है और विनाशी की ममता, कामना, भूल जनित है । भूल का नाश होने से ममता, कामना आदि का नाश हो जाता है । फिर स्वाभाविक मांग की पूर्ति स्वत: हो जाती है, उसके लिये कुछ करना नहीं पड़ता । मांग की जागृति से, ममता तथा कामना के नाश से मांग की पूर्ति होती है, इस दृष्टि से वास्तविक मांग की पूर्ति और ममता, कामना आदि की निवृत्ति अनिवार्य है । इस ध्रुव सत्य में अविचल आस्था करने से सत्संग बड़ी ही सुगमतापूर्वक हो सकता है । क्रियाजनित सुख का प्रलोभन देहाभिमान, अर्थात् असत् के संग को पोषित करता है । असत् का संग रहते हुए किसी भी मानव को वास्तविक जीवन की उपलब्धि नहीं हो सकती । इस दृष्टि से असत् का त्याग तथा सत् का संग अनिवार्य है । यह नियम है कि जो मानव मात्र के लिये अनिवार्य है, उसकी प्राप्ति में पराधीनता तथा असमर्थता नहीं है । यह वैधानिक तथ्य है । अतः सत्संग मानव मात्र के लिये सुलभ है। उससे निराश होना भूल है । उसके लिये नित नव-उत्साह बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक है । उत्साह मानव को सजगता तथा तत्परता प्रदान करता है । उत्साहहीन जीवन निराशा की ओर ले जाता है, जो अवनति का मूल है। जिसकी प्राप्ति में निराशा की गन्ध भी नहीं है उनके लिये उत्साह सुरक्षित रखना सहज तथा स्वाभाविक है । पर यह रहस्य तभी स्पष्ट होता है जब मानव सत्संग को अपना जन्मसिद्ध अधिकार स्वीकार करता है, कारण कि सत्संग के बिना काम की निवृत्ति, जिज्ञासा की पूर्ति एवं प्रेम की जागृति सम्भव नहीं है। काम की निवृत्ति में ही नित्य योग एवं जिज्ञासा की पूर्ति ही तत्त्व साक्षात्कार तथा प्रेम की जागृति में अनन्त | रस की अभिव्यक्ति निहित है जो मानव मात्र की अन्तिम मांग है । क्रियाजनित सुख भोग में पराधीनता, असमर्थता एवं प्रभाव निहित है जो किसी भी मानव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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