Book Title: Karttavya Karm Author(s): Swami Sharnanand Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 5
________________ कर्तव्य-कर्म ] [ 257 यह अनुभव सिद्ध है कि प्रतीति की ओर प्रवृत्ति भले ही हो, किन्तु परिणाम में प्राप्ति कुछ नहीं है। प्रवृत्ति के अन्त में अपने आप आने वाली निवृत्ति ही मूक सत्संग है / उस निवृत्ति को सुरक्षित रखना अनिवार्य है। यह तभी सम्भव होगा जब "अपने लिये कुछ भी करना नहीं है, अपितु सेवा, त्याग, प्रेम में ही जीवन है"- इसमें किसी प्रकार का विकल्प न हो। प्रवृत्ति का आकर्षण पराधीनता को जन्म देता है। प्रवृत्तियों का उद्गम देहाभिमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है / देहाभिमान की उत्पत्ति भूलजनित है, जिसकी निवृत्ति मूक-सत्संग से ही साध्य है / प्राप आप के करम सू, आप निरमल होय / आपां नै निरमल करै, और न दूजो कोय // प्रापै ही खोटा करै, आपै मैलो होय / खोटी करणी छूटतां, आपै उजली होय // तीन बात बन्धन बन्ध्या, राग, द्वेष, अभिमान / तीन बात बन्धन खुल्या, शील, समाधि, ज्ञान // जब तक मन में मोह है, राग-द्वष भरपूर / तब तक मन संतप्त है, शान्ति बहुत ही दूर // जब तक मन में राग है, जब तक मन में द्वष / तब तक दुःख ही दुःख है, मिटें न मन के क्लेश // जितना गहरा राग है, उतना गहरा द्वष / जितना गहरा द्वष है, उतना गहरा क्लेश // क्रोध क्षोभ का मूल है, शान्ति-शान्ति की खान / क्रोध छोड़ धारे क्षमा, होय अमित कल्याण // राग जिसो ना रोग है, द्वेष जिसो ना दोष / मोह जिसी ना मूढ़ता, धरम जिसो ना होस / -सत्यनारायण गोयनका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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