Book Title: Karmstava Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 4
________________ २४८५ जैन धर्म और दर्शन अनुमान सृष्टि, वर्तमान लेखकों की शैली का अनुकरण मात्र है । इस नवीन द्वितीय कर्मग्रन्थ के प्रणेता श्री देवेन्द्रसूरि का समय श्रादि पहले कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना से जान लेना । गोम्मटसार में 'स्तव' शब्द का सांकेतिक अर्थ इस कर्मग्रन्थ में गुणस्थान को लेकर बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का विचार किया है वैसे ही गोम्मटसार में किया है । इस कर्मग्रन्थ का नाम तो 'कर्मस्तव' है पर गोम्मटसार के उस प्रकरण का नाम 'बन्धोदय सत्त्व-युक्त-स्तव' जो 'बन्धुदयसत्तत्तं घादेसे थवं वोच्छं' इस कथन से सिद्ध है ( गो० कर्म० गा० ७६ ) । दोनों नामों में कोई विशेष अन्तर नहीं है । क्योंकि कर्मस्तव में जो 'कर्म' शब्द है उसी की जगह 'बंधोदयसत्वयुक्त' शब्द रखा गया है । परन्तु 'स्तव' शब्द दोनों नामों में समान होने पर भी, उसके अर्थ में बिलकुल भिन्नता है । 'कर्मस्तव' में 'स्तव' शब्द का मतलब स्तुति से है जो सर्वत्र प्रसिद्ध ही है पर गोम्मटसार में 'स्तव' शब्द का स्तुति अर्थ न करके खास सांकेतिक किया गया है । इसी प्रकार उसमें 'स्तुति' शब्द का भी पारभाषिक अर्थ किया है जो और कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। जैसे सयलंगेक्कंगेक्कंगहियार सवित्थर ससंखेवं । वरणणसत्थं थयथुइधम्म कहा होइ गियमेण || - गो० कर्म० गा० द अर्थात् किसी विषय के समस्त अंगों का विस्तार या संक्षेप से वर्णन करने वाला शास्त्र 'स्तव' कहलाता है, एक अंग का विस्तार या संक्षेप से वर्णन करनेवाला शास्त्र 'स्तुति' और एक अंग के किसी अधिकार का वर्णन जिसमें है वह शास्त्र 'धर्म कथा' कहता है । इस प्रकार विषय और नामकरण दोनों तुल्यप्राय होने पर भी नामार्थ में जो भेद पाया जाता है, वह संप्रदाय-भेद तथा ग्रन्थ रचना - संबंधी देश-काल के भेद का परिणाम जान पड़ता है । गुणस्थान का संक्षिप्त सामान्य स्वरूप आत्मा की अवस्था किसी समय अज्ञानपूर्ण होती है । वह अवस्था सबसे प्रथम होने के कारण निकृष्ट है । उस अवस्था से आत्मा अपने स्वाभाविक चेतना, चारित्र आदि गुणों के विकास की बदौलत निकलता है और धीरे-धीरे उन शक्तियों के विकास के अनुसार उत्क्रान्ति करता हुआ विकास की पूर्णकला – अंतिम हृद को पहुँच जाता है। पहली निकृष्ट अवस्था से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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