Book Title: Karmstava
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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________________ 'कर्मस्तव' मन्थ रचना का उद्देश्य 'कर्मविपाक' नामक प्रथम कर्मग्रन्थ में कम की मूल तथा उत्तर प्रकृतियाँ का वर्णन किया गया है। उसमें बन्ध योग्य, उदय-उदीरणा-योग्य और सत्ता योग्य प्रकृतियों की जुदी-जुदी संख्या भी दिखलाई गई है। अब उन प्रकृतियों के बन्ध की, उदय-उदीरणा की और सत्ता की योग्यता को दिखाने की आवश्यकता है। सो इसी आवश्यकता को पूरा करने के उद्देश्य से इस दूसरे कम ग्रन्थ की रचना हुई है। विषय-वर्णन-शैली संसारी जीव गिनती में अनन्त हैं । इसलिए उनमें से एक व्यक्ति का निर्देश करके उन सब की बन्धादि संबन्धी योग्यता को दिखाना असंभव है। इसके अतिरिक्त एक व्यक्ति में बन्धादि संबन्धी योग्यता भी सदा एक सी नहीं रहती: क्योंकि परिणाम व विचार के बदलते रहने के कारण बन्धादि विषयक योग्यता भी प्रति समय बदला करती है। अतएव अात्मदर्शी शास्त्रकारों ने देहधारी जीवों के १४ वर्ग किये हैं। यह वर्गीकरण, उनकी श्राभ्यन्तर शुद्धि की उत्क्रान्तिअपक्रान्ति के आधार पर किया गया है । इसी वर्गीकरण को शास्त्रीय परिभाषा में गुणस्थान-क्रम कहते हैं। गुणस्थान का यह क्रम ऐसा है कि जिससे १४ विभागों में सभी देहधारी जीवों का समावेश हो जाता है जिससे कि अनन्त देहधारियों की बन्धादि संबन्धी योग्यता को १४ विभागों के द्वारा बतलाना सहज हो जाता है और एक जीव-व्यक्ति की योग्यता-जो प्रति समय बदला करती है- उसका भी प्रदर्शन किसी न किसी विभाग द्वारा किया जा सकता है । संसारी जीवों की आन्तरिक शुद्धि के तरतमभाव की पूरी वैज्ञानिक जाँच करके गुणस्थानं क्रम की रचना की गई है। इससे यह बतलाना या समझना सरल हो गया है कि अमुक प्रकार की प्रान्तरिक अशुद्धि या शुद्धिवाला जीव, इतनी ही प्रकृतियों के बन्ध का, उदय-उदीरणा का और सत्ता का अधिकारी हो सकता है । इस कर्म ग्रन्थ में उक्त गुणस्थान क्रम के आधार से ही जीवों की बन्धादि-संबंधी योग्यता को बतलाया है। यही इस ग्रन्थ की विषय-वर्णन-शैली है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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