Book Title: Karmstava
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 7
________________ गुणस्थान-क्रम 251 की स्थिरता व अधिकता में। आत्मा जब 'संज्वलन' नाम के संस्कारों को दबाता है, तब उत्क्रान्ति पथ की सातवीं आदि भूमिकाओं को लाँघकर ग्यारहवीं बारहवीं भूमिका तक पहुँच जाता है / बारहवीं भूमिका में दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति के विपक्षी संस्कार सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, जिससे उक्त दोनों शक्तियाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं। तथापि उस अवस्था में शरीर का संबन्ध रहने के कारण आत्मा की स्थिरता परिपूर्ण होने नहीं पाती। वह चौदहवीं भूमिका में सर्वथा पूर्ण बन जाती है और शरीर का वियोग होने के बाद वह स्थिरता, वह चारित्र-शक्ति अपने यथार्थ रूप में विकसित होकर सदा के लिये एक सी रहती है / इसी को मोक्ष कहते हैं / मोक्ष कहीं बाहर से नहीं आता। वह आत्मा को समग्र शक्तियों का. परिपूर्ण व्यक्त होना मात्र है मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव च / अज्ञान-हृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः // शिव गीता--१३-३२ __ यह विकास की पराकाष्ठ, यह परमात्म-भाव का अभेद, यह. चौथी भूमिका (गुण स्थान) में देखे हुए ईश्वरत्व का तादात्म्य, यह वेदान्तियों का ब्रह्म-भाव यह जीव का शिव होना और यही उत्कान्ति मार्ग का अन्तिम साध्य है। इसी साध्य तक पहुँचने के लिए आत्मा को विरोधी संस्कारों के साथ लड़ते-झगड़ते, उन्हें दबाते, उत्क्रान्ति मार्ग की जिन-जिन भूमिकाओं पर आना पड़ता है, उन. भूमिकाओं के क्रम को ही 'गुणस्थान क्रम' समझना चाहिए। यह तो हुआ गुणस्थानों का सामान्य स्वरूप / उन सबका विशेष स्वरूप थोड़े बहुत विस्तार के साथ इसी कर्मग्रन्थ की दूसरी गाथा की व्याख्या में लिख दिया गया है / ई० 1921] [द्वितीय कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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