Book Title: Karm ka Swarup
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 6
________________ [ 1 ] किण विध होवे छूट करम को [राग विहाग-भेष धर योंही जनम गमायो] किण विध होवे छूट करम को, किण विध होवे छूट ।।टे०॥ दुष्ट रुष्ट मन मुष्ट चलाकर, कियो वृक्ष ने ठंट // इण भव कुष्ट, पुष्ट तन परभव, वायस रहा अंग चूंट // 1 // वेश्या सम छल-बल-कल करने, बनगयो स्यारणो सूट / आयो हाट में दई टाट में, लियो बाण्या ने लूट / / 2 / / गुणवंता का गुण नहिं कीना, अवगुण काढ्या झूठ / इधर उधर की बात बणाकर, पापी पाडी फूट / / 3 / / षट्-रस भोजन महल त्रिया सुख, राज करू चहुं खूट / पाप माहे अग्रेसर बनियो, प्रायुबल गयो खूट / / 4 / / सतसंगत को नाम न लीनो, वित्त दाव बदे मुख तूट / "सुजाण" कहे सतशील धरम बिन, ज्यू टोला को ऊँट / / 5 / / -मुनि श्री सुजानमलजी म. सा. [ 2 ] प्रभु तुम सौं नाहीं परदा हो [राग-झंझोटी] इन करमौं तै मेरा डरदा हो ।इन०।। इनही के परसंग तै सांई, भव-भव में दुःख भरदा हो ।।इन।।१।। निमष न संग तजत ये मेरा, मैं बहुतेरा ही तड़फदा हो ॥इन।।२।। ये मिलि बहौत दीन लखि मौंको, आठों ही जाम रहै लरदा हो ।इन।।३।। दुःख और दरद की मैंसय हीअरपदा, प्रभु तुम सौं नाहीं परदा हौ ।।इन।४।। 'बखतराम' कहै अब तौ इनका, फेरि न कीजिए आरजूदा हो ।इन।।५।। -बखतराम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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