Book Title: Karm ka Swarup
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 5
________________ कर्म का स्वरूप ] [ ६५ साथ कर्मों का बन्ध हुआ, ऐसी मान्यता नहीं है । क्योंकि इस मान्यता में अनेक विप्रतिपत्तियां उत्पन्न होती हैं । ' पंचास्तिकाय' में जीव और कर्म के इस अनादि सम्बन्ध को जीव पुद्गल कर्म चक्र के नाम से अभिहित करते हुए लिखा है "जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होहि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ।। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इन्द्रियाणि जायंते । तेहि दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ।। ( २ ) जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्रवालम्मि | इदि जिणवरेहिं भणिदो प्रणादिणिघणो सणिधणो वा ॥ (३०) अर्थ :- जो जीवन संसार में स्थित है प्रर्थात् जन्म श्रौर मरण के चक्र में • पड़ा हुआ है उसके राग और द्वेष रूप परिणाम होते हैं । परिणामों से नये कर्म बंधते हैं । कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है । जन्म लेने से शरीर होता है । शरीर में इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करता है । विषयों के ज्ञान से राग और द्वेष रूप परिणाम होते हैं । इस प्रकार संसार रूपी चक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्म और कर्म से भाव होते रहते हैं । यह प्रवाह अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि अनन्त है और भव्य जीव की अपेक्षा से अनादि सान्त है । इससे स्पष्ट है कि जीव अनादि काल से मूर्तिक कर्मों से बंधा हुआ है । जब जीव मूर्तिक कर्मों से बंधा है, तब उसके नये कर्म बंधते हैं, वे कर्म जीव में स्थित मूर्तिक कर्मों के साथ ही बंधते हैं, क्योंकि मूर्तिक का मूर्तिक के साथ संयोग होता है और मूर्ति का मूर्तिक के साथ बंध होता है । अतः आत्मा में स्थित पुरातन कर्मों के साथ ही नये कर्म बंध को प्राप्त होते रहते हैं । इस प्रकार परम्परा से कदाचित मूर्तिक आत्मा के साध मूर्तिक कर्म द्रव्य का सम्बन्ध जानना चाहिये । सारांश यह है कि अन्य दर्शन क्रिया और तज्जन्य संस्कार को कर्म कहते हैं, किन्तु जैन दर्शन जीव से सम्बद्ध मूर्तिक द्रव्य और निमित्त से होने वाले रागद्व ेष रूप भावों को कर्म कहता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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