Book Title: Karm ka Swarup
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ ६४ ] [ कर्म सिद्धान्त जैन दर्शनानुसार कर्म का स्वरूप : जैन दर्शन के अनुसार कर्म के दो प्रकार होते हैं। एक द्रव्य कर्म और दूसरा भाव कर्म । यद्यपि अन्य दर्शनों में भी इस प्रकार का विभाग पाया जाता है और भाव कर्म की तुलना अन्य दर्शनों के संस्कार के साथ तथा द्रव्य कर्म की तुलना योग दर्शन की वृत्ति और न्याय दर्शन की प्रवृत्ति के साथ की जा सकती है तथापि जैन दर्शन के कर्म और अन्य दर्शनों के कर्म में बहुत अन्तर है। जैन दर्शन में कर्म केवल एक संस्कार मात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है जो रागी-द्वेषी जीव को क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ उसी तरह घुलमिल जाता है, जैसे दूध में पानी । वह पदार्थ है तो भौतिक, किन्तु उसका कर्म नाम इसलिये रूढ़ हो गया है क्योंकि जीव के कर्म अर्थात् क्रिया की वजह से आकृष्ट होकर वह जीव से बंध जाता है। आशय यह है कि जहाँ अन्य दर्शन राग और द्वेष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहते हैं, और उस कर्म के क्षणिक होने पर भी तज्जन्य संस्कार को स्थायी मानते हैं वहाँ जैन दर्शन का मन्तव्य है कि राग-द्वेष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ एक प्रकार का द्रव्य आत्मा में आता है, जो उसके राग-द्वेष रूप परिणामों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बंध जाता है। कालान्तर में यही द्रव्य आत्मा को शुभ या अशुभ फल देता है । इसका खुलासा इस प्रकार है जैन दर्शन छः द्रव्य मानता है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । अपने चारों ओर जो कुछ हम चर्म चक्षुओं से देखते हैं सब पुद्गल द्रव्य है । यह पुद्गल द्रव्य २३ तरह की वर्गणाओं में विभक्त है। उन वर्गणामों में से एक कार्मण वर्गणा भी है, जो समस्त संसार में व्याप्त है । यह कार्मरण वर्गणा ही जीवों के कर्मों का निमित्त पाकर कर्मरूप परिणत हो जाती है। जैसा कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है "परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असूहम्मि रागदोसजदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ।” (प्रवचनसार ६५) अर्थात् जब राग-द्वेष से युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामों में लगती है, तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणीय आदि रूप से उसमें प्रवेश करती है। ___इस प्रकार जैन सिद्धान्त के अनुसार कर्म एक मूर्त पदार्थ है, जो जीव के साथ बन्ध को प्राप्त हो जाता है। जीव अमतिक है और कर्म द्रव्य मूर्तिक । ऐसी दशा में उन दोनों का बन्ध ही सम्भव नहीं है । क्योंकि मूर्तिक के साथ मूर्तिक का बन्ध ही हो सकता है, किन्तु अमूर्तिक के साथ मूर्तिक का बन्ध कदापि संभव नहीं है, ऐसी आशंका की जा सकती है, जिसका समाधान निम्न प्रकार है अन्य दर्शनों की तरह जैन दर्शन भी जीव और कर्म के सम्बन्ध के प्रवाह को अनादि मानता है। किसी समय यह जीव सर्वथा शुद्ध था और बाद को उसके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6