Book Title: Karm aur Purusharth ki Jain Kathaye Author(s): Prem Suman Jain Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 4
________________ ३३६ ] [ कर्म सिद्धान्त जल में बदल देने की बात कही । राजा ने कहा- यह नहीं हो सकता । तब मंत्री ने कहा कि पुद्गलों में जीव के प्रयत्न और स्वाभाविक रूप से परिवर्तन किया जा सकता है । राजा ने इस बात को स्वीकार नहीं किया । तब सुबुद्धि ने जलशोधन की विशेष प्रक्रिया द्वारा उसी खाई के अशुद्ध जल को अमृतसदृश मधुर और पेय बनाकर दिखा दिया । तब राजा की समझ में आया कि व्यक्ति की सद्प्रवृत्तियों के पुरुषार्थ उसके जीवन को बदल सकते हैं । अन्त में राजा और मंत्री दोनों जैन धर्म में दीक्षित हो गये । इसी ग्रंथ में समुद्रयात्रा आदि की कथाएँ भी हैं । जिनसे ज्ञात होता है कि संकट के समय भी साहसी यात्री अपना पुरुषार्थ नहीं त्यागते थे । जहाज भग्न होने पर समुद्र पार करने का भी प्रयत्न करते थे । अनेक कठिनाइयों को पार कर भी वणिकपुत्र सम्पत्ति का अर्जन करते थे । 'उत्तराध्ययन टीका' ( नेमीचंद्र ) एक कथा है, जिसमें राजकुमार, मंत्रीपुत्र और वणिकपुत्र अपने - अपने पुरुषार्थ का परीक्षण करके बतलाते हैं । 'दशवैकालिक चूर्णी' में चार मित्रों की कथा में पुरुषार्थों की श्रेष्ठता सिद्ध की गई है । 'वसुदेवहिण्डी' में अर्थ और काम पुरुषार्थ की अनेक कथोपकथाएँ हैं । अर्थोपार्जन पर ही लौकिक सुख आधारित है । अत: इस ग्रंथ की एक कथा में चारुदत्त दरिद्रता को दूर करने के लिए अंतिम क्षण तक पुरुषार्थ करना नहीं छोड़ता । 'उच्छसिरिवसति' इस सिद्धांत का पालना करता है । 'समराइच्चकहा' में लौकिक और पारमार्थिक पुरुषार्थं की अनेक कथाएँ हैं । उद्योतनसूरि ने 'कुवलयमाला कहा' में एक ओर जहाँ कर्मफल का प्रतिपादन किया है, वहाँ चंडसोम आदि की कथाओं द्वारा यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पापी से पापी व्यक्ति भी यदि सद्प्रवृत्ति में लग जाये तो वह सुखसमृद्धि के साथ जीवन के अन्तिम लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकता है । मायादत्त कथा में कहा गया है कि लोक में धर्म, अर्थ, और काम इन तीन पुरुषार्थों में से जिसके एक भी नहीं है, उसका जीवन जड़वत् है । अतः अर्थ का उपार्जन करो, जिससे शेष पुरुषार्थ की सिद्धि हो ( कुव० ५८. १३-१५) । सागरदत्त की कथा ज्ञात होता है कि बाप-दादाओं की सम्पत्ति से परोपकार करना व्यर्थ है । जो अपने पुरुषार्थ से अर्जित धन का दान करता है वही प्रशंसा का पात्र है, बाकी सब चोर हैं : : जो देई धरणं दुहराय समज्जियं प्रत्तणो भुय-बलेण । सो किर पसंसणिज्जो इयरो चोरो विय वराश्रो ।। कुव० १०३-२३ ।। इसी तरह इस ग्रंथ में धनदेव की कथा है । वह अपने मित्र भद्रश्रेष्ठी को प्रेरणा देकर व्यापार करने के लिए रत्न - दीप ले जाना चाहता है । भद्र श्रेष्ठी इसलिए वहाँ नहीं जाना चाहता क्योंकि वह सात बार जहाज भग्न होजाने से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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