Book Title: Karm aur Purusharth ki Jain Kathaye
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 20
________________ 352 ] लो तुम्हें बहरा करके ही दम लूँगा। उसने दोनों कानों में काष्ठ के तीखे कीले ठोके और चला गया। इससे महावीर को तीव्र वेदना हुई, किन्तु उनका चित्त क्षण मात्र भी खिन्न नहीं हा तथा चिन्तन धारा में निमग्न हो गये। "मेरी आत्मा ने ही त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में शय्यापालक के कानों में गर्म सीसा डलवाया था। उसी कर्म विपाक का प्राज भुगतान हो रहा है / इसमें ग्वाले का क्या दोष ? मैंने जैसा कर्म किया, उसी का फल आज मुझे मिल रहा है। वास्तव में कर्मों का भुगतान हुए बिना मुक्ति नहीं है।" ण तस्स दुक्खं विभयंति णाइयो, ण मित्तवग्गा ण सुया ण बंधवा / इक्को सयं पच्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं // - उत्तरा० 13/23 अर्थः-पापी जीव के दुःख को न जाति वाले बँटा सकते हैं, न मित्रमंडली, न पुत्र, न बंधु / वह स्वयं अकेला ही दुःख भोगता है क्योंकि कर्म कर्त्ता का ही अनुसरण करता है (कर्ता को ही कर्मों का फल भोगना पड़ता है)। सुखस्य दुखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीत्ति कुबद्धि रेषा / अहं करोमोति वृथाभिमानः, स्वकर्म सूत्र प्रथितो हि लोकः / / अर्थः-सुख-दुःख का देने वाला कोई नहीं है। अन्य जीव मेरे सुख-दुःख का कारण है, यह कुबुद्धि-मात्र है / मैं कर्ता हूँ यह मिथ्याभिमान है। समस्त संसार कर्म के प्रभाव से ही ग्रथित है। धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे, भार्या गह द्वारि जनः श्मसाने / देहश्चितायां परलोकमार्गे, कर्मानुगो गच्छति जीव एकः // अर्थ:-जीव के परलोक प्रस्थान करते समय उसके द्वारा अजित धन भूमि में ही रह जाता है, पशुवर्ग उसकी शाला में ही बँधा रह जाता है / भार्या गृह के द्वार तक ही रह जाती है, मित्र-मण्डली श्मशान तक पहुँचाती है। यह शरीर जो लम्बे समय तक जीव का साथी रहा, वह भी चितापर्यन्त साथ देता है / जीव अकेला ही कर्मानुसार परलोक गमन करता है / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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