Book Title: Karm aur Jiv ka Sambandh Author(s): Hira Muni Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 3
________________ कर्म और जीव का सम्बन्ध ] [ १५ गति, जाति, योनि आदि की विभिन्नता का कारण मानता है । वह उसे ईश्वर, ब्रह्म या शक्तिशाली देवों का कार्य नहीं मानता है । प्रश्न होता है कि जीव का • अजीव कर्म से सम्बन्ध कब से है ? जैन दर्शन इस सम्बन्ध को खदान से निकले सोना और मिट्टी के सम्बन्ध की तरह अनादि मानता है। __ सम्बन्ध दो तरह के होते हैं समवाय सम्बन्ध और संयोग सम्बन्ध । गुणगुणी का सम्बन्ध समवाय सम्बन्ध है जो अलग नहीं किया जा सकता । जैसे मिश्री और मिठास, अग्नि और उष्णता, नमक और खारापन, जीव और ज्ञान, सूर्य और प्रकाश । लेकिन जीव और जड़ कर्म का सम्बन्ध संयोग-सम्बन्ध है जैसे- दूध और पानी, सोना और मिट्टी, लोहा और अग्नि, तार और बिजली, शरीर और जीव । जीव और कर्म का सम्बन्ध समवाय सम्बन्ध न होकर संयोग सम्बन्ध है। कर्म के सम्बन्ध में एक प्रश्न और उठता है कि यदि कर्म जड़ है तब जड़ कर्म में किस प्रकार फल देने की शक्ति है। प्रत्यक्ष में हम देखते हैं जड़ पदार्थों का अन्य जड़ पदार्थों पर भी संयोग के कारण प्रभाव दिखायी देता है जैसे पारस लोहे को स्वर्ण रूप में परिवर्तित कर देता है । वस्त्र विभिन्न रंगों के परमाणुओं का संयोग पाकर चित्र-विचित्र रंगों को प्राप्त होता है, इस तरह जड़ में भी संयोग शक्ति के कारण विभिन्नता आती है तो फिर जड़ चेतन का संयोग पाकर अधिक शक्तिवाला बन जाय, उसमें कोई आश्चर्य नहीं ? स्पष्ट ही हम देखते हैं-भंग शिला पर घोटी जाकर शिला में नशा नहीं पैदा कर, पीने वाले चेतन में अपना अत्यधिक प्रभाव दिखाती है । जैन दर्शनानुसार कर्म द्रव्य रूप व भाव रूप से दो प्रकार का है। जीव से सम्बद्ध कर्म पुद्गल द्रव्य कर्म और द्रव्य कर्म के प्रभाव से होने वाले जीव के राग-द्वेष रूप भाव, भाव कर्म है । राग-द्वेष रूप चिन्तन से आत्म प्रदेशों में एक प्रकार की हलचल-कंपन होती है । इस प्रकार परिणाम स्वरूप कर्म पुद्गल आकृष्ट हो चिपक जाते हैं। जैसे केमरा आकृति को, रेडियो ध्वनि को और चुम्बक लोहकणों को खींचता है, वैसे ही परिणाम द्रव्य कार्मण वर्गणा को आकर्षित करता है, कर्म में स्वयं सुख-दुःख प्रदान करने की शक्ति नहीं है किन्तु यह शक्ति चेतन द्वारा प्रदत्त होती है । चेतन का संयोग पाकर कर्म की शक्ति बलवतर हो जाती है। जिसके प्रभाव से देवेन्द्र, नरेन्द्र, धर्मेन्द्र तीर्थंकरों को भी कठोर यंत्रणा भोगनी पड़ी। आत्मा कर्म के साथ किस प्रकार आबद्ध होती है, यह तथ्य निम्न दृष्टान्त द्वारा सुगमतया समझा जा सकता है । कल्पना कीजिये जैसे आपने एक गाय के गले में रस्सा डाल कर उसे बाँध लिया। वह गाँठ गाय के नहीं, चमड़े के नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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