Book Title: Karm aur Jiv ka Sambandh Author(s): Hira Muni Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 1
________________ कर्म और जीव का सम्बन्ध 0 पं० रत्न श्री होरा मुनि संसार एक रंगमंच है : संसार एक रंगमंच है। यहाँ नाना प्रकार के पात्र हमें दृष्टिगोचर होते हैं । इनमें कोई अमीर है तो कोई गरीब, कोई राजा है तो कोई रंक, कोई सबल है तो कोई निर्बल, कोई विद्वान् है तो कोई मूर्ख । किसी का सर्वत्र अभिनन्दनअभिवन्दन है तो किसी को दुत्कार-फटकार । किसी के दर्शन को आँखें तरसतीं, टकटकी लगाये पंथ निहारती तो किसी को फूटी आँख से भी देखना पसंद नहीं, कोई कामदेव-रति तुल्य तो कोई कौवा तवा की तरह भद्दा-काला। कोई सांचे में ढालकर फुरसत में बनाया हो ऐसा रूपवान तो कोई बेढब, बेडोल और ऊँट, गर्दभवत् भद्दी आकृति वाला । कोई कोमल, सरल तो कोई कर्कश-कठोर, टेढ़ामेढ़ा अष्टावक्र की तरह । किसी को 'वन्समोर, प्लीज' कहकर कोयलवत् और तान छेड़ने को कहा जाता है तो किसी को 'बैठ जागो', 'तुमको किसने खड़ा किया', 'क्यों कौओ और गधे की तरह गला फाड़ रहे हो', 'यह फटा बाँस और कहीं जाकर बजाना', ऐसा कहा जाता है । किसी की लात भी अच्छी तो किसी की भली बात भी खराब । मात्र मनुष्य की ही बात नहीं । यह जीव कभी सुख-सागर में निमग्न देव बना तो कभी भयंकर भयावने भय और असह्य-दुःख का घर नारकी बना। इस तरह गति, जाति आदि की बाहरी भिन्नता ही नहीं, भीतरी-गुणस्थान, लेश्या, पुण्यानुबंधी पुण्य आदि की दृष्टि से असंख्य भेद शास्त्रकारों ने किये हैं। विभिन्नता-विचित्रता का कारण कर्म : आखिर, इस विभिन्नता-विचित्रता, विभेद और विसदृश्यता का कारण क्या है ? विविधता-विषमता-अनेकता के अनेकों कारण एवं समाधान प्राप्त होते हैं । वैदिक परम्परा इस भिन्नता का कारण ईश्वर को मानती है तो कोई सामाजिक अव्यवस्था बताते हैं । किन्हीं का मन्तव्य है कि यह माता-पिता का दोष है तो कोई आदत, कुटेव, अज्ञानता, स्वार्थ, वासनामयी वृत्ति को कारण मानते हैं। *मुनि श्री के प्रवचन से । पं० शोभाचन्द्र जैन द्वारा सम्पादित । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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