Book Title: Karm aur Jiv ka Sambandh Author(s): Hira Muni Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 2
________________ १४ ] [ कर्म सिद्धान्त जैन दर्शन इस विभिन्नता का कारण कर्म मानता है । जैन मान्यतानुसार जो जैसा करता है, वही उसका फल भोगता है । एक प्राणी दूसरे प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं हो सकता, जैसा कि कहा है "स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकम् तदा ॥" उपर्युक्त तथ्य को ही हिन्दी कवि ने निम्न प्रकार स्पष्ट किया है- , "अपने उपार्जित कर्मफल को जीव पाते हैं सभीउसके सिवा कोई किसी को कुछ नहीं देता कभी। ऐसा समझना चाहिये एकाग्र मन होकर सदा, दाता अपर है भोग का इस बुद्धि को खोकर सदा ॥" कर्म के अनेक अर्थ: कर्म शब्द अनेकार्थक माना गया है। काम-धंधे के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग होता है । खाना, पीना, चलना, फिरना आदि क्रिया का भी कर्म शब्द से व्यवहार किया जाता है। इसी प्रकार कर्मकाण्डी मीमांसक यज्ञ.आदि क्रियाकांड के अर्थ में, स्मात विद्वान् ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्षों तथा ब्रह्मचर्य आदि चारों आश्रमों के लिये नियत किये गये कर्म रूप अर्थ में, व्याकरण के निर्माता लोग कर्ता द्वारा की जाने वाली क्रिया, जिस पर कर्ता के व्यापार का फल गिरता है, इस अर्थ में, और नैयायिक लोग उत्क्षेपण-अवक्षेपण आदि पाँच सांकेतिक कर्मों के संदर्भ में कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं। परन्तु जैन दर्शन में कर्म शब्द एक विशेष अर्थ में व्यवहृत किया जाता है। जैन दर्शन की मान्यतानुसार कर्म नैयायिकों या वैशेषिकों की भाँति क्रिया रूप नहीं है किन्तु पौद्गलिक द्रव्य रूप है । आत्मा के साथ प्रवाह रूप से सम्बन्ध रखने वाला एक अजीव द्रव्य है। कर्म और जीव का सम्बन्ध : _भगवान महावीर ने संसार के अनन्त-अनन्त पदार्थों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया है-जीव और अजीव या जड़ और चेतन । जीव के साथ जड़ का संयोग-सम्बन्ध ही संसार में विविधता, विचित्रता और विभिन्नता उत्पन्न करता है । यदि विभिन्नता का कारण मात्र चेतन आत्मा होती तो सिद्ध अवस्था में भी विभिन्नता होती किन्तु ऐसा नहीं है । इसी प्रकार मात्र जड़ भी विचित्रता-विभिन्नता का कारण नहीं है जैसे बिना जीव का अलोकाकाश । अतः मिट्टी और पानी के संयोग की तरह जड़ और चेतन के संयोग को ही जैन दर्शन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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