Book Title: Karm Swarup Prastuti
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ कर्म : स्वरूप प्रस्तुति / १९ तुम्हें सता रही है, उसके निवारणार्थ यह जप करिए। किसी प्रोष्ट्रीयोपैथी (हड्डियों के विशेषज्ञ) के पास जायेंगे तो वह कहेगा-इसकी हड्डियों का संतुलन बिगड़ गया है, इसी कारण दर्द रहता है। इसी प्रकार एक्यूपंक्चर-डॉक्टर कहेगा-शरीर में विद्युत् ऊर्जा की कमी है, एक्यूपंक्चर से ठीक रहेगा। देखा न आपने ? बीमार एक और दृष्टियाँ कितनी विभिन्न ? विभिन्न कार्य-कारण भाव और विभिन्न अभिव्यक्तियाँ । मुझे तो इस प्रकार विभिन्न कथनकारों पर हँसी पा रही है। पायं पुत्रो ! सब कुछ मझ (कर्म) पर आधारित है। शुभाशुभ कर्मों के विपाकस्वरूप शारीरिक व मानसिक पीड़ाएं पैदा हुआ करती हैं। अन्तरंग तथा बहिरंग तनाव बढ़ते हैं । विषम परिस्थितियां तभी निर्मित होती है। चूंकि-शनि, राहु, केतु, मंगल, रवि इत्यादि नौ ग्रह वैद्य डॉक्टर, मान्त्रिक तथा भूत-प्रेतात्मा सभी मेरे (कर्म के) प्रभाव से प्रभावित हैं, सभी मेरे अधीन हैं । मैं सभी ग्रहों को चक्कर खिलाता रहता हूँ। मेरा यह सिद्धान्त पाज का नहीं, अनादि काल से है। बिना मतलब मैं किसी के पीछे फिरता नहीं है, हाँ जो शुभाशुभ कर्तव्य करने में संलग्न हैं उन्हीं के पीछे छाया की तरह लगा रहता हूँ। भले ये आत्माएं स्वर्ग किं वा नरक, महल-जेल, कानन-वन, पहाड़-भाड़ में छिपे रहें, मुझमें वह शक्ति विद्यमान है कि-में वहाँ उनका पीछा किये रहेंगा । अपने कर्जदार को पकड़कर दम लेने वाला दुनिया में केवल एक मैं ही हूँ। जहाँ सरकार नहीं वहाँ मेरी पहुंच है, मेरी सत्ता है। सभी नर-नरेन्द्र, सुरेन्द्र पशुजगत् मेरे प्राधीन हैं। "न सगे-सम्बन्धी, न तात-मात-भ्रात और न पुत्र-पत्नी कर्मफल भोगने में शरीक होते हैं और न मैं किसी को होने देता हूँ।" जो करेगा वही भरेगा,, यह सिद्धान्त है मेरा । भ. महावीर स्वामी को धन्यवाद है। उन्होंने मेरे सिद्धान्त की पुष्टि की है। इस जीवन में कृत सत्कर्म इस जीवन में सुखदायी होते हैं और अगले जन्म में भी। इसी प्रकार इस जीवन में कृत दुष्कर्म इस जीवन में दुःखदायी होते हैं और अगले जीवन में भी...13 मेरा कर्ज अदा किये बिना भले तीथंकर-चक्रवर्ती-वासुदेव-बलदेव या कोई और भी बड़ी हस्ती हो, मैं उन्हें मुक्त होने नहीं देता । "पुनरपि जननं पुनरपि मरणम् ।" की हेराफेरी में से उन्हें गुजरना ही पड़ता है। "कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।" ऐसा उपदेश देकर भ. महावीर ने मेरे मत की पुष्टि की है । १. वैद्या वदंति कफ-पित्त-मरुद्विकारं, नैमित्तिका: ग्रहकृतं प्रवदंति दोषम् । भूतोपसर्गमथ मंत्रविदो वदंति, कर्मव शुद्धमतयो यतयो वदंति ॥ २. न तस्स दुक्खं विभयंति नाइयो, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एको सयं पच्चण होइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ।। -उत्तरा. ३. इहलोगे सुचिन्नाकम्मा: इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । इहलोगे दुचिन्नाकम्मा.... . धम्मो दीयो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7