Book Title: Karm Karmbandh aur Karmkshay Author(s): Rajiv Prachandiya Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 2
________________ १०८ ] [ कर्म सिद्धान्त आत्मा से इन सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं के छूटने का विधि-विधान है तथा आत्मा का सर्वप्रकार के कर्म-परमाणुओं से मुक्त होना मोक्ष कहलाता है। वास्तव में कर्मों के आने का द्वार आस्रव है जिसके माध्यम से कर्म आते हैं। संवर के माध्यम से यह द्वार बन्द होता है अर्थात नवीन कर्मों का आगमन रुक जाता है तथा जो कर्म आस्रव-द्वार द्वारा पूर्व ही बद्ध/संचित किए जा चुके हैं, उन्हें निर्जरा अर्थात् तप/साधना द्वारा ही दूर/क्षय किया जा सकता है। इस प्रकार संवरे और निर्जरा मुक्ति के कारण हैं, तथा आस्रव और बन्ध संसार-परिभ्रमण के हेतु हैं । इन उपर्युक्त पाँच बातों को जैन दर्शन में तत्त्व कहा गया है। यह निश्चित है कि तत्त्व को जाने/समझे बिना कर्म-रहस्य को समझ पाना नितान्त असम्भव है । मोक्ष मार्ग में तत्त्व अपना बहुत महत्त्व रखते हैं। 'तस्यभावस्तत्त्वम्' अर्थात् वस्तु के सच्चे स्वरूप को जानना तत्त्व कहलाता है अर्थात् जो वस्तु जैसी है, उस वस्तु के प्रति वही भाव रखना, तत्त्व है, किन्तु वस्तू स्वरूप के विपरीत जानना/मानना मिथ्यात्व/उल्टी मान्यता/ यथार्थ ज्ञान का अभाव है। यह मिथ्यात्व काषायिक भावनाओं (क्रोध, मान, माया और लोभ) तथा अविरति (हिंसा, झूठ, प्रमाद) आदि मनोविकारों को जन्म देता है, जिससे कर्मों का आस्रव-बन्ध होता है । उपरोक्त तत्त्वों को सहीसही रूप में जान लेने/सम्यग्दर्शन के पश्चात् पर-स्व भेद बुद्धि को समझकर। सम्यग्ज्ञान के तदनन्तर इन तत्त्वों के प्रति श्रद्धान तथा भेद-विज्ञान पूर्वक इन्हें स्व में लय करने/सम्यग् चारित्र से कर्मों का संवर निर्जरा होता/होती है। निर्जरा हो जाने पर तथा समस्त कर्मों से मुक्ति मिलने पर ही जीव संसार के आवागमन से छूट जाता है। निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है। जैनदर्शन में कार्मारण वर्गणा/कर्म-शक्ति युक्त परमाणु/कर्म, को मूलतः दो भागों में विभक्त किया गया है। एक तो वे कर्म जो आत्मा के वास्तविक स्वरूप का घात करते हैं, घाति कर्म कहलाते हैं जिनके अन्तर्गत ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म आते हैं तथा दूसरे वे कर्म जिनके द्वारा आत्मा के वास्तविक स्वरूप के आघात की अपेक्षा जीव की विभिन्न योनियाँ, अवस्थाएँ तथा परिस्थितियाँ निर्धारित हुआ करती हैं, अघाति कर्म कहलाते हैं, इनमें नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय कर्म समाविष्ट हैं । ज्ञानावरणीय कर्म : कार्माण वर्गणा/कर्म परमाणुओं का वह समूह जिससे आत्मा का ज्ञान गुण प्रच्छन्न रहता है, ज्ञानावरणीय कर्म कहलाता है। इस कर्म के प्रभाव में आत्मा के अन्दर व्याप्त ज्ञान-शक्ति शीर्ण होती जाती है। फलस्वरूप जीव रूढ़ि-क्रिया काण्डों में ही अपना सम्पूर्ण जीवन नष्ट करता है । इस कर्म के क्षय .. के लिए सतत स्वाध्याय करना जैनागम में बताया गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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