Book Title: Karm Karmbandh aur Karmkshay
Author(s): Rajiv Prachandiya
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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________________ १४ | कर्म, कर्मबन्ध और कर्मक्षय 0 श्री राजीव प्रचंडिया सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं का बना हुआ सूक्ष्म अदृश्य शरीर वस्तुतः कार्माण शरीर कहलाता है । यह कार्माण शरीर आत्मा में व्याप्त रहता है। आत्मा का जो स्वभाव (अनन्त ज्ञान-दर्शन, अनन्त आनन्द-शक्ति आदि) है, उस स्वभाव को जब यह सूक्ष्म शरीर विकृत/आच्छादित करता है तब यह आत्मा सांसारिक/बद्ध हो जाता है अर्थात् राग-द्वषादिक काषायिक भावनाओं के प्रभाव में आ जाता है अर्थात् कर्मबन्धन में बंध जाता है जिसके फलस्वरूप यह जीवात्मा अनादिकाल से एक भव/योनि से दूसरे भव/योनि में अर्थात् अनन्तभवों/अनन्त योनियों में इस संसार-चक्र में परिभ्रमण करता रहता है । ___ कर्म जैसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त का सूक्ष्म तथा वैज्ञानिक विश्लेषण जितना जैन दर्शन करता है उतना विज्ञान सम्मत अन्य दर्शन नहीं। जैन दर्शन के समस्त सिद्धान्त/मान्यताएँ वास्तविकता से अनुप्राणित, प्रकृति अनुरूप तथा पूर्वाग्रह से सर्वथा मुक्त हैं । फलस्वरूप जैन धर्म एक व्यावहारिक तथा जीवनोपयोगी धर्म है। __ 'कर्मबन्धन' की प्रणाली को समझने के लिए जैनदर्शन में निम्न पाँच महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख निरूपित है, यथा (१) आस्रव, (२) बन्ध, (३) संवर, (४) निर्जरा, तथा (५) मोक्ष । मनुष्य जब कोई कार्य करता है, तो उसके आस-पास के वातावरण में क्षोभ उत्पन्न होता है जिसके कारण उसके चारों ओर उपस्थित कर्म-शक्ति युक्त सूक्ष्म पुद्गल परमाणु/कार्माण वर्गणा/कर्म आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं। इनका आत्मा की ओर आकर्षित होना आस्रव तथा आत्मा के साथ क्षेत्रावगाह/ एक ही स्थान में रहने वाला सम्बन्ध बन्ध कहलाता है। इन परमाणुओं को प्रात्मा की ओर आकृष्ट न होने देने की प्रक्रिया वस्तुतः संवर है। 'निर्जरा' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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