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(३) वंशावलियों में बहुत पाय जाते हैं । किन्तु ग्रंथ कार के उल्लख स एसा ज्ञात होता है कि उनके उत्साहवर्धक सज्जन के जीवनकाल में ही ये तीनों राजा हो चुके थे और उनके साथ इनका सम्बंध भी खासा रह चुका था। अतः उक्त नामों के पंस तीन गजा द्वंदना चाहिये जिनका एकही काल में या एक ही जीवन में एक पुरुष से सम्बंध होना सम्भव हो सके। वर्तमान ज्ञात इतिहास में तो मुझ, बहुत खोज करने पर भी, एसा सामक्षम्य नहीं मिल सका, पर मुझे कुछ ऐसे शिलालेखों का पता चला है जिनमें कुछ आशाजनक वार्ता मिलती है । ये तीनों लेख बुन्देलखंड प्रान्त के भीतर या आसपास पाय गये हैं। इनमें का एक लेख अपभ्रंश भाषा में है और नीचे उसका संस्कृत अनुवाद भी दिया गया है । उसमें प्रसंगोपयोगी यह वात दी हुई है कि विश्वामित्र गोत्र के क्षत्रिय वंश में विजयपाल नाम के एक राजा हुये जिनके पुत्र भुवनपाल थे । उन्होंने कलचुरी, गुर्जर और दक्षिण को जीत डाला था। यह लेख दमोह जिले की हटा तहसील में मिला था और अब नागपुर के अजाय. वघर में सुरक्षित है । दूसरा लख बांदा जिले के अन्तर्गत चन्देलों की पुरानी राजधानी कालिंजर में मिला है। उसमें विजयपाल के पुत्र भूमिपाल का तथा दक्षिण दिशा और कर्ण राजा को जीतने का उलेख है। तीसरा लख जबलपुर जिल के अन्तर्गत तीबर में मिला है। उसमें भूमिपाल के उत्पन्न होने का उल्लेख स्पष्ट है तथा किसी सम्बंध में त्रिपरी और सिंहपुरी का भी उल्लेख है । इन लेखों में के दो अन्तिम लेख यहुत ही इंटे ट हैं, इसस उनके पूर्वापर सम्बंध का कुछ ज्ञान नहीं होता, तथा प्रथम लेख पूरा मिलने पर भी अभीतक स्पष्टतः नहीं पढ़ा जा सका है। जो कुछ पढ़ा गया है उस में अपभ्रंश और संस्कृत की वार्ता में कुछ परस्पर विरोध सा पाया जाता है । तथापि उक्त नामों के सम्बंध में कोई मतभेद नहीं है। लेखों में कोई सन् सम्बत् भी नहीं पाया गया. किन्तु लिखावट पर से वे ११ हवीं या १२ हवीं शताब्दि के अनुमान किये जाते हैं। मेरा तो ख्याल है कि सम्भवतः उक्त लेखों के विजयपाल और उनके पुत्र भुवनपाल या भूमिपाल, तथा हमारे ग्रंथ के विजयपालं ( अपभ्रंश विजवाल ) और भूपाल एक ही है । रही कर्ण (अपभ्रंश कण्ण) नरेन्द्र की बात । सो ये कण वे ही हो सकते हैं जिनका उल्लेख ऊपर के दूसर शिलालेख में आया है। यदि ज्ञात इतिहास में इन राजाओं को समाविष्ट करने का प्रयत्न किया जाय तो कालिंजर के चंदेल वंश में सम्भवतः हो सकता है । इस वंश में विक्रम संवत् १०९७ के लगभग एक विजयपाल नामक राजा हुआ है। यह प्रतापी कलचुरी नरश कर्णदेव का समकालीन था। इसके दो पत्र हए, देववर्मा और कीर्तिवर्मा । कीर्तिवर्मा ने कर्णदेव को परास्त कर दिया था, ऐसा उसी विजय की स्मृति में लिखे गये प्रबोधचन्द्रोदय नामक संस्कृत नाटक तथा उस काल के कुछ शिलालेखों से ज्ञात होता है । सम्भव है ये कीर्तिवर्मा तथा उपर्युल्लिखित भुवनपाल, भूमिपाल व भूपाल एक ही हो । उस अवस्था में जिस कर्ण की पराजय का उल्लेख दूसरे शिलालेख में पाया जाता है वह कलचुरि कर्णदेव ही ठहरेगा। सम्भव है हमारे ग्रंथकर्ता के भक्त सजन इन्ही राजाओं के मंत्री रहे हों । इन सब राजाओं के राजत्वकाल
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